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क्षपणासार
[ गाथा ३२७
होता है । विशेषता - ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षमात्र होता है । मोहनीयका उससे सख्यातगुणाहीन तत्प्रायोग्य सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । उपशमश्रेणि चढनेवाले के सात नोकषायके उपशम करनेके काल में संख्यातवाभाग व्यतीत हो जानेपर ( जिस स्थानपर ) नाम, गोत्र, वेदनीयका स्थितिबन्ध संख्यातवर्षप्रमारण होता था, उतरने वाले पुरुषवेद अनुपशान्त हो जानेपर और जबतक स्त्रीवेद उपशान्त रहता है तबतक इस मध्यवर्ती कालके सख्यात बहुभाग बीत जानेपर ( चढ़ने वालेके उस स्थानके नही प्राप्त हुए ही इसके ) नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध सख्यातवर्षको उल्लघकर असंख्यात वर्षका होने लगता है । चढनेवाले के स्थितिबन्ध संख्यातवर्षका होता था अत. उतरने - वाले के दोगुणा स्थितिबन्ध होना चाहिए ऐसी आशंका नही करना चाहिए । गिरनेवाले के संक्लेश विशेष के कारण असंख्यातवर्षका स्थितिबन्ध हो जाता है । वीसिय- नाम, गोत्रका पल्यके असख्यातवेभाग प्रमाण स्थितिबन्ध होता है तो तीसिय अघातिकर्मवेदनीयका कितना स्थितिबन्ध होगा ? इसप्रकार त्रैराशिक करने से वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध पल्यके असख्यातवें भागका डेढगुणा होगा । उससमय स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व इसप्रकार होगा -
मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प है । तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है, क्योकि इनका स्थितिबन्ध उतरनेवाले जीवके सूक्ष्मसाम्पराय नामक १०त्रे गुणस्थानके प्रथमसमयमे प्रारम्भ हो गया था और मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध वादरलोभ अर्थात् ध्वे गुणस्थानमें प्रारम्भ हुआ है । नाम - गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यात गुणा है और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । अधिकका प्रमाण द्विभाग है' |
आगे स्त्रीवेदके उपशमके विवाशको प्ररूपणा दो गाथाओंमें करते हैंथी अवसमे पढमे वीसकसायाण होदि गुणसेढी । संडुवसमोचि मक्के संखाभागे तीदेसु ॥ ३२७॥ घादितिया यिमा असंखवस्तं तु होदि ठिदिबंधो ।
१. ज. ध. मूल पू. १९०३-१९०४; क पा. चू सूत्र ४६१-४६६ |