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गाथा ३३१]
क्षपणासार
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शङ्काः-अन्तरकरण करके आरोहक सम्बन्धी जो काल अतिक्रान्त कर दिया है वह काल उतरते समय लौटकर पुन. प्राप्त नहीं होता, क्योकि जो काल बीत गया उसके पुनः आगमनमें विरोध है, फिर यह कैसे कहा गया कि नपु सकवेद अनुपशान्त हो जानेपर जबतक अन्तरकरण कालको प्राप्त नही होता, क्योकि इसप्रकारको सम्भावना युक्तिसे बाह्य है ।
समाधान:- यह सत्य है कि वह काल पुनः नही आने वाला है, यह इष्ट है, किन्तु अन्तरकरण करके और ऊपर चढकर तथा उपशान्तकषाय होकर पुन. नीचे उतरनेवाले जीवके उपशान्तकालसे ऊपर होकर स्थित हुआ यह नपु सकवेदका अनुपशान्तकाल, उपशामकके नए सकवेदकी उपशाम नाके कालसे, थोडा मिलानेसे सदृश परिणामवाला हो जाता है, ऐसा समझकर इसकालमे उपशामकके उक्तकालका उपचार करनेसे और यहीपर अन्तरकरणसम्बन्धी स्थानकी बुद्धिसे कल्पना करके यतः यह प्ररूपणा आरम्भ को है इसलिए कुछ विरुद्ध नही होती, क्योकि उपशामकके कालके विपर्याससे गिरनेवालेके कालोको विलोमक्रमसे स्थापितकर यह प्ररूपणा आरम्भ की है। इसलिए नपु सकवेदके अनुपशान्त होनेपर जबतक अन्तरकरण अवस्था प्राप्त नही होती इस मध्यवर्तीकालके सख्यात खण्ड करके उनमें बहुत भाग व्यतीत होकर व सख्यातवाभाग शेष रह जानेपर मोहनीयकर्म संख्यातवर्षवाले स्थितिबन्धको उल्लंघकर असख्यात वर्षवाला स्थितिबन्ध होने लगता है यह सुसम्बद्ध है । उसीसमय अनुभागबन्ध व उदय द्विस्थानिक ( लता, दारुरूप ) हो जाता है। मोहनीयकर्मका एक स्थानीय ( लतारूप ) अनुभागबन्ध व उदय सख्यातवर्षीय स्थितिबन्धके समकालीन था। संख्यातवर्षवाले स्थितिबन्धका अवसान (समाप्ति) होनेपर एक स्थानीय अनुभागबन्ध व उदय की भी परिसमाप्ति हो जाती है ।
अब उतरते समय लोभ संक्रमण, बंधावलि व्यतीत होनेपर उदोरणादिको प्ररूपणा तीव गाथाओंमें करते हैं
लोहस्स असंकमणं छावलितीदेसुदीरणतं च ।
णियमेण पडताणं मोहस्तणुपुव्विसंकमणं ॥३३१॥ १. जयधवल मूल पृ० १६०५-६ ।