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गाथा ३२८ ]
क्षपरणासार
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तक्काले दुडाणं रसबंधी ताण देसवादीणं ॥ ३२८ ॥
अर्थः- स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेके प्रथम समय में बीस कषायोंकी गुणश्र ेणी होती है । यहांसे लेकर नपुंसकवेदके उपशान्त रहनेतक कालके सख्यात बहुभाग बीत जानेपर तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध नियमसे असंख्यातवर्षप्रमाण हो जाता है और उसीसमय उनकी देशघाति प्रकृतियोका अनुभागबन्ध द्विस्थानिक हो जाता है ।
विशेषार्थ :- पूर्वोक्त गाथा कथित कालसे आगे सहस्रो स्थितिबन्धो के व्यतीत होनेपर स्त्रीवेदको एकसमयमें अनुपशान्त करता है । उसोसमय से स्त्रीवेदका द्रव्य उत्कर्षण आदिके योग्य हो जाता है । प्रथमसमयमे ही अनुदयरूप प्रकृति स्त्रीवेद के arat पर्षित करके उदयावलिके बाहरसे अन्य १६ प्रकृतियो के समान गलिहावशेष गुणश्रेणि आयाममें, अन्तरायाममें और द्वितीय स्थिति मे निक्षिप्त करता है । मोहनीय कर्मकी पूर्वोक्त १९ प्रकृतियों (१२ कषाय व ७ नो कषाय) के द्रव्यको भी अपकर्षित करके इसीप्रकार निक्षिप्त करता है । इसप्रकार बीस प्रकृतियोको गलितावशेष गुणश्रेणि होती है ।
स्त्रीवेद अनुपशान्त होनेपर जबतक नपु सकवेद उपशान्त रहता है तबतक इस मध्यवर्तीकालके सख्यात बहुभागो के बीतनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त - राय इन तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध असख्यातवर्ष हो जाता है । उससमयमे मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प, तीन घातिया कर्मोका असख्यातगुणा, इससे असख्यातगुणा नाम व गोत्रका और उससे विशेष अधिक अर्थात् डेढगुणा वेदनोयकर्मका स्थितिबन्ध होता है | जिससमय तीन घातिया कर्मोका सख्यातवर्षकी स्थितिवाला बन्ध होता है उससमय मति श्रत अवधि मन पर्यय इन चार ज्ञानावरणीय, चक्षु श्रचक्षुअवधि इन तीनप्रकारके दर्शनावरणीय और पाचो (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ) अन्तरायकर्म अनुभागबन्धको अपेक्षा लता, दारुरूप द्विस्यानोय अनुभागवन्धवाले हो है ।'
१. जयधवल मूल पृ १६०४ - ५ । आरोहकके संख्यातवषप्रमाण स्थितिबन्धके प्रारम्भके समकालमें ही इन कर्मोंका एक स्थानिक बन्ध उत्पन्न हो गया; यहां भी संख्यातवर्षं स्थितिबन्ध के अवसान को प्राप्त होने पर प्रसंख्यातवर्षीय स्थितिबन्धके प्रारम्भके समकालमे ही एक स्थानिकबन्ध समाप्त होगया, यहाँसे लेकर उन सकल प्रकृतियोका द्विस्थानीक ही अनुभाग वधता है; इतना विशेष है । (ज. घ. मूल पृ. १६०५ )