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गाथा २५० - २५१]
लब्धिसार
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लिए शक्य होते है । बन्ध समयसे लेकर जबतक पूरी छह प्रवलिया व्यतीत नहीं होती है तबतक उनकी उदीररणा होना शक्य नही है । जिस प्रकार अन्तरकरण के पूर्व सर्वत्र बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद बद्धकर्म उदीरणाके योग्य होता है यह नियम स्वभावसे प्रतिबद्ध है उस प्रकार इस स्थल पर भी बन्धसमय से लेकर छह आवलि व्यतीत होने के बाद बद्धकर्म उदीरणाके योग्य होता है यह नियम स्वभावसे प्रतिबद्ध है' ।
अन्तर किये जानेके पश्चात् प्रथम समयसे लेकर नपुसकवेदका आयुक्त (प्रारम्भ ) करणद्वारा उपशामक होता है । इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है—यहा से लेकर अन्तर्मुहूर्तकालतके नपुंसकवेदका आयुक्त ( उद्यत अथवा प्रारम्भ ) क्रियाके द्वारा उपशामंक होता है, शेष कर्मो को तो किंचिन्मात्र भी नहीं उपशमाता है, क्योकि उनकी उपशामनॆक्रियाका अभी भी प्रारम्भ नही हुआ है । इसप्रकार आयुक्त (उद्यत ) क्रियाके द्वारा नपु ंसकवेदके उपशमानेका आरम्भकर उपशमाता है ।
अब चारित्रमोहोपशमन का क्रम कहते हैं
अंतरपदमादु कमे एक्क्कं सत्त चदुसु तिय पयडिं । सममुच सांमदि वकं समऊणावलिदुगं वज्जं ॥ २५० ॥ एय उंसयवेद इत्थीवेदं तहेव एयं च । सत्व णोकसाया कोहादितियं तु पयडीओ ॥ २५१ ॥
श्रर्थ—अन्तर हो जानेके पश्चात् प्रथम समयसे एक अन्तर्मुहूर्तमें नपुंसकवेदको उपशमाते हैं । तत्पश्चात् पुनः एक अन्तर्मुहूर्तमे स्त्रीवेदको उपशमाता है । पुनः एक अन्तर्मुहूर्त में सात नोकषाय को, पुनः एक अन्तर्मुहूर्तमें तीन क्रोध को, पुन. एक अन्तर्मुहूर्तमे तीन मान को पुनः एक अन्तर्मुहूर्तमे तीन माया को, तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्तद्वारा तीन लोभका उपशम करता है । वहा एक समय कम दो ग्रावली प्रमाण नवक प्रबद्धो को नहीं उपशमाता है ।
१. ज. ध पु. १३ पृ. २६५-२६७ ।
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आयुक्त कररण किसे कहते है इसका उत्तर- प्रायुक्तकरण, उद्यतकरण और प्रारम्भकरण ये तीनो एकार्थक हैं । तात्पर्यरूप से यहा से लेकर नपु सकवेदको उपशमाता है, यह इसका अर्थ है | (ज. ध. पु. १३ पृ. २७२ )
ज ध. पु १३ पृ २७२ ।
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