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गाथा ३०२-३०३ ] लब्धिसार
[ २४३ सम्बन्धी निषेकोके साथ तद्रूप परिणमनकर उदयरूप होगा।
विशेषार्थ-पुरुषवेदके उच्छिष्टमात्र शेष निषेक तो सज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमें तद्रप परिणमनकर उदय होते है । इसीप्रकार सज्वलनक्रोधका सज्वलनमानमे इत्यादि क्रमसे बादरलोभके उच्छिष्टावलिसम्बन्धी निषेक सूक्ष्मकृष्टिमे तद्रूप परिणमित होकर उदयरूप होते हैं । इसका कथन पूर्वमें किया हो है।
पुरिसादो लोहगयं णवकं समऊरण दोषिण आवलियं । उवसमदि हू कोहादीकिट्टि अंतेसु ठाणेतु ॥३०२॥
अर्थ-पुरुषवेदसे लोभपर्यन्तके एक समयकम दो प्रावलिमात्र नवक समयप्रबद्धोका द्रव्य क्रोधादि कृष्टिपर्यन्तकी प्रथमस्थितिके कालोमे उपशमता है ।
विशेषार्थ-पुरुषवेदका नवक समयप्रबद्ध सज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थितिके कालमे उपशमित होता है इत्यादि कथन पूर्वमे किया ही है ।
इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयमें सर्वकृष्टि द्रव्यको उपशान्त करके तदनन्तर समयमें उपशान्तकषाय हो जाता है, इस बात को बताते हैं
उवसंतपढमसमये उवसंतं सयलमोहणीयं तु । मोहस्सुदयाभावा सव्वत्थ समाणपरिणामो ॥३०३॥
अर्थ-उपशान्तकषायके प्रथम समयमे समस्त मोहनीयकर्म उपशमरूप रहता है। मोहनीयकर्मके उदयका अभाव हो जानेसे उपशान्तकषाय गुणस्थानके सम्पूर्ण कालमे समानरूप परिणाम रहते है ।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके कालको व्यतीतकर तदनन्तर समय मे मोहनीयकर्मके बन्ध, उदय, सक्रम, उदीरणा, अपकर्षण और उत्कर्षण आदि सभी करणोका पूर्णरूपेण उपशम रहता है । यहासे लेकर अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त उपशातकषाय वीतरागछद्मस्थ रहता है । जिसकी सभी कषाये उपशात हो गई है वह उपशांतकषाय कहलाता है तथा कषाय उपशात हो जानेपर वीतराग हो जाता है अत' उपशातकपाय वीतराग कहलाता है । समस्त कषायोके उपशात हो जानेसे उपशातकषाय और समस्त राग परिणामोंके नष्ट हो जानेसे वीतराग होकर वह अन्तर्मुहर्तकाल तक अत्यन्त