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क्षपणासार
[ २५१ समाधान:-- यह दोष नही आता, क्योकि अनिवृत्तिकरणमे प्रवेशके प्रथमसमयमे ही अप्रशस्त उपशमकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरण नष्ट हो जाते है और वह सतति अविच्छिन्नरूपसे ऊपर चली जानेसे उनकी प्रवृत्ति सम्भव नही है। अतः सर्वोपशामनामे उन अप्रशस्त उपशमकरण, निधत्तिकरण आदिका उपशम सिद्ध हो जाता है। सर्वोपशामना करणमे अपकर्षणादिका अभाव होनेपर भी अप्रशस्त उपशमकरणादिकी उत्पत्ति नहीं होती। ससार अवस्थामें अपकर्षणादिका अभाव होनेपर भी अप्रशस्त उपशमकरणादिकी उत्पत्ति नहीं होती। ससार अवस्थामे अपकर्षणादि सम्भव होनेपर भी बन्धके समय अन्तरंग कारणके वशसे कितने ही कर्म परमाणमोका उदीरणा-उदय आदिका न होना अप्रशस्तउपशमकरण आदिका व्यापार है।'
श्री यतिवृषभाचार्यने कषायपाहुड़ पर रचित चूणि सूत्रोमे देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामनाका कथन इसप्रकार किया है
देशकरणोपशामनाके दो नाम है-देशकरणोपशामना, अप्रशस्तोपशामना । जयधवलाकारने इसकी व्याख्या इसप्रकार की है-संसार प्रायोग्य अप्रशस्त परिणाम निबन्धन होनेसे इस देशकरणोपशामनाको अप्रशस्तोपशामना कहा गया है। अप्रशस्त परिणामोका निबधन प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योकि अतितीव्र सक्लेशके वशसे अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरणकी प्रवृत्ति देखी जाती है । क्षपकश्रेणी व उपशमश्रेणिमे विशुद्ध परिणामोके द्वारा इनका विनाश हो जाता है, इसलिए अप्रशस्त भावकी सिद्धि हो जाती है। इसप्रकार जो अप्रशस्तोपशामना है, वही देशकरणोपशामना कही जाती है। कर्म प्रकृति प्राभृतमे अर्थात् दूसरापूर्व, पचमवस्तु, उसकी चतुर्थ प्राभृतके कर्मप्रकृति अधिकारमें देशकरणोपशामनाका सविस्तार कथन है।
सर्वकरणोपशामनाके भी दो नाम है-सर्वकरणोपशामना और प्रशस्तकरणोपशामना । प्रथम सर्वकरणोपशामनाका कथन पूर्वमें किया जा चुका है। प्रशस्तकरणोपशामना सज्ञा सुप्रसिद्ध है, क्योंकि इसमें प्रशस्तकरण परिणाम कारण है। कषायोपशामनाकी प्ररुपरणाके अवसरमें सर्वकरणोपशामनाकी विवक्षा है । प्रकरणोपशामना व देशकरणोपशामनाका यहां प्रयोजन नही है।
१. जयधवल मूल पृ० १८७२-७३ । २. जयघवल मूल प० १८७४ एवं क. पा. सुत्त पृ०७०७-७०६ ।