Book Title: Labdhisara Kshapanasara
Author(s): Ratanchand Mukhtar
Publisher: Dashampratimadhari Ladmal Jain

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Page 562
________________ [ गाथा ३१६ २६० ] क्षपरणासार एक-एक निषेकरूपसे उदयमान स्पर्धकोके निषेकोमे स्तुविक सक्रमण द्वारा तद्रूप परिणमन कर' उदय होगे । उसी प्रथम समयमे मोहका ग्रानुपूर्वी सक्रम भी नष्ट हुआ । इतना विशेष जानना कि यद्यपि प्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण लोभका वध्यमान सज्वलनलोभमे हो सक्रमण होना प्रारम्भ हुआ, तथापि इसमें ग्रानुपूर्वी संक्रमकी विवक्षा नही है । तथा सञ्ज्वलन लोभके कोई वध्यमान स्वजातीय प्रकृति नही है, अत व्यक्ति की अपेक्षा अभी भी आनुपूर्वी सक्रम है । शक्तिकी अपेक्षा सज्वलनलोभके अनानुपूर्वी से अन्य प्रकृतिमे संक्रम होनेका परिणाम हुआ है। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमे मोहके बन्धके प्रभावसे संक्रम सम्भव नही है । स्पर्धकरूप उदित वादरलोभ का वेदन करता हुआ यह प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरण वादर साम्पराय मुनि सज्वलन लोभके द्रव्यका अपकर्षरण करके उदयरूप समयसे लेकर ग्रावली से अधिक बादरलोभ वेदककाल [ अवरोहकके लोभवेदक कालका साधक दो बटे तीन भाग ] प्रमाण गुण रेगो आयाममे असख्यातगुणे क्रमसे निक्षिप्त करता है । प्रत्याख्यान तथा श्रप्रत्याख्यान लोभके द्रव्यको उदयावलीसे बाह्य पूर्वोक्त गुणश्रेणि ग्रायाममे सख्यात - गुणे क्रमसे निक्षिप्त करता है । तथा अनिवृत्तिकरणकाल के दितीयादि समयमे असख्यात - गुणा हीन - ( घटता) क्रम लिये द्रव्यका अपकर्षण करके श्रवस्थित गुणश्र ेणी-प्रायाम मे पूर्वोक्त प्रकार निक्षेपण करता है । अन्य कर्मोकी गलितावशेषगुणश्रेणी जाननी चाहिए । मदरबादरपढमे लोहस्संतो मुहुत्तियो बंधो । दुदितो घादितियं चउवस्तो अवादितियं ॥ ३१६ ॥ अर्थ- सूक्ष्मसाम्परायसे उतरने पर बादर लोभके प्रथमसमयमे संज्वलन - लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमारण, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन १ क्योकि स्पधको के वेदन होनेपर उदयावलो मे प्रविष्ट कृष्टियोका भी स्पर्धकभावसे उदय-विपाकको छोडकर प्रकारान्तरपने का सम्भव नही पाया जाता है । जयघवल मूल १८६६ २ गवरि जाओ उदयावलियम्भत राम्रो तानो त्थिवुक्कसकमेण फड्डएसु विपच्चहिति । ज. ध १८९६ ३. वत्तोए पुरा प्रज्जवि प्राणुपुत्रिसकमो चेव । ज० धवल १८९६ ४. लोभ परिव्वज्य प्रन्यापा प्रकृतीना बन्यो अस्मिन्नवसरे नास्ति । जयधवल १८६७

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