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गाथा ३१४ ]
क्षपणासार
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ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोका अन्तर्मुहूर्त, नाम व गोत्र कर्मका ३२ मुहूर्त एव वेदनीयका ४८ मुहूर्त मात्र स्थिति बन्ध जानना, क्योकि आरोहक सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिम समयमे जो स्थितिबन्ध होता है उससे अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे दुगुणा स्थितिबन्ध है । उपशमश्र णि चढनेवालेको आरोहक और उतरनेवालेको अवरोहक कहते है । '
गुणसेढी सत्थेदररसबंधो उवसमादु विवरीयं ।
पढमुदओ किट्टीएम संखभागा विसेस अहियकमा ।। ३१४ ॥
अर्थः- तदनन्तर समय मे ( द्वितीयादि समयोमे ) अवरोहकके गुणश्रेणि ग्रूपकृप्टद्रव्य, प्रशस्त व अप्रशस्तप्रकृतियोका अनुभागबन्ध आरोहक से विपरीतक्रम लिये होता है । प्रथम समयमे जितनी कृष्टियोका उदय होता है, द्वितीयादि समयोमे उसके असख्यातवेभाग विशेष अधिक क्रमसे उदय होता है ।
विशेषार्थ – अवरोहक ( उतरनेवाला ) सूक्ष्मसाम्परायके द्वितीयादि समयों मे प्रतिसमय प्रथमसमय सम्बन्धी द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन क्रमयुक्त द्रव्य अपकर्षित करके गुणश्रे े रिण करता है । सातावेदनीयादि प्रशस्त प्रकृतियोका अनन्तगुणा हीन क्रम लीये और ज्ञानावरणादि प्रशस्त प्रकृतियोका अनन्तगुणा बढता क्रम लीये अनुभागबध होता है, क्योंकि यहा प्रतिसमय विशुद्ध व सक्लेशकी यथाक्रम अनन्तगुणो हानि व वृद्धि होती है । इसलिए उपशमश्रेणि पर आरोहण करते समयसे उतरते समय विपरीतपना कहा है । स्थितिबन्ध तो प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त समान ही है । प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तमे प्रारोहकके स्थितिबन्धसे अवरोहकके यथास्थान दुगुणा स्थितिबन्ध सूक्ष्म साम्पराय के अन्तिम समय पर्यन्त जानना । चढते हुए जिस स्थानपर जितना स्थिति - बन्ध होता था उससे दूना स्थितिबन्ध उसी स्थानपर उतरते हुए होता है । जैसे चढ़ते समय स्थितिबन्धापसरण द्वारा स्थितिबन्ध घटाकर एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें समान बन्ध करता था वैसे ही यहां स्थितिबन्धोत्सरण द्वारा स्थितबन्ध बढ़ाकर एक-एक अन्तर्मुहूर्त में समानबन्ध करता है । अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समय में उदयरूप जो निषेक कृष्टि पाई जाती है उसको पल्यके असंख्यातवे भागका भाग दिया उसमेसे बहुभाग१. ज. ध. मूल पृ. १८६३-९४ सूत्र ३९४; ध. पु. ६ पृ. ३१८ - १६ ।