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उपशान्तकषायगुणस्थानसे अधःपतनका कथन । "उपशान्तकषायतः अधःपतनकथनाधिकारः"
अवस्थित परिणामवाला उपशान्तकषायवीतरागो मोहमें जिन कारणों से गिरता है; उसमें सर्वप्रथम भवक्षयरूप कारण को कहते हैं
वसंते पडिवडिदे भवक्खये देवपदमसमयहि | Baisa Hoad करणाणि हवंति खियमेण ॥ ३०८ ॥ श्रर्थः -- भवक्षय होनेपर उपशान्तकषायसे गिरकर देवोमे उत्पन्न होनेवाले के प्रथमसमयमें नियमसे समस्तकरण उद्घाटित हो जाते है ।
विशेषार्थः श्रवस्थित परिणामवाले उपशान्तकषायका प्रतिपात दो प्रकार है १. भवक्षय निबन्धन २. उपशमनकाल क्षय निबन्धन | इनमे भवक्षय अर्थात् प्रथमादि किसी भी समय मे आयुक्षयसे प्रतिपातको प्राप्त हुए जीवके देवोमे उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही असंयत हो जानेसे बंध, उदीरणा एव संक्रमणादि सब करण निज स्वरूपसे प्रवृत्त हो जाते है । उपशान्तकषायमे जो करण उपशान्त थे वे सब देव असयत में उपशम रहित हो जाते है । उपशान्तकषायसे परिणाम हानिके कारण नही गिरता, क्योकि अवस्थित परिणाम होने के कारण परिणाम हानि सम्भव नही है । '
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आगे भदक्षयसे उपशान्तकषायगुणस्थान से प्रतिपतित देव असयत के प्रथम - समय में सम्भव कार्यविशेषका कथन करते हैं-
सोदराणदव्वं देदि हु उदद्यावलिम्हि इयरं तु । उदयावलिबाहिर गोपुच्छाए देदि सेढीए ॥ ३०६ ॥
अर्थः-- उदयरूप प्रकृतियोका द्रव्य उदयावलिमें भी दिया जाता है, इतर
९. ज. घ. मूल पृ १८६१; क पा सु. पृ ७१४ सूत्र १२१-२२ पु ६ पृ ३१७ ।