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लब्धिसार
[- गाथा ३०१ २४२ ]
विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे लेकर सभी कृष्टियोके प्रदेशपूज को गुणश्रेणिरूपसे उपशमाता है अर्थात् प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कृष्टियोके प्रदेशपु जको उपशमाता है। सर्वप्रथम समयमें सर्वकृष्टियोमे पल्योपमके असंख्यातवेभागका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त होता है उतने प्रदेशपु जको उपशमाता है । पुन दूसरे समयमे सर्वकृष्टियोमे पल्यके असख्यातवेभागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने प्रदेशपु जको उपशमाता है, किन्तु परिणामोके माहात्म्यसे प्रथम समयमे उपशमाए गये प्रदेशपु जसे असंख्यातगुणे प्रदेशपु जको दूसरे समयमे उपशमाता है । इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समय होने तक सर्वत्र गुणश्र णिके क्रमसे उपशमाता है।
केवल कृष्टियो को ही असख्यातगुणित श्रेणिरूपसे नही उपशमाता है, किन्तु जो दो समयकम दो आवलिप्रमाण स्पर्धकगत नवकसमयप्रबद्ध है उन्हेभी असख्यातगुणित श्रेणिरूपसे उपशमाता है । बादरसाम्परायके अन्त समयमें स्पर्धकगत उच्छिष्टावलि शेष रह गई थी वह यहापर कृष्टिरूपसे परिणमकर स्तिवुकसक्रमके द्वारा विपाकको प्राप्त होती है । अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध होता है जो अन्तमुहर्तप्रमाण है। नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सोलहमुहूर्तप्रमाण है, वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध चौवीस मुहूर्तप्रमाण होता है, क्योकि क्षपकके होनेवाले बारह मुहूर्तप्रमाण अन्तिम स्थितिवन्धसे यह दूने प्रमाण को लिये हुए होता है। यहा सभी कर्मोके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबंध, अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्धकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इतनो विशेषता है कि वेदनीयकर्मका प्रकृतिवन्ध उपशान्तकषाय गुणस्थानमे भी होता है, क्योकि प्रकृतिबन्ध योगके निमित्तसे होता है इसलिये सयोगकेवलीके अन्तिम समयतक उक्त बन्ध सम्भव है ।
आगे २ गाथाओं में पूर्वोक्त कथनका उपसंहार करते हैंपुरिसादीणुच्छि8 समऊणावलिगदं तु पच्चिहिदि । सोदयपढमट्ठिदिणा कोहादीकिट्टियंताणं ॥३०१॥
प्रर्य-पुरुषवेदादिका एकसमयकम प्रावलिप्रमाण निषेकोका द्रव्य उच्छिष्टापलिन्प है वह द्रव्य क्रोधादि सूक्ष्मकृष्टि पर्यन्तके उदयरूप निषेकसे लेकर प्रथमस्थिति , उ. पु १३ पृ ३२३-३२६ । क पा सु पृ ७०५; घ. पु ६ पृ. ३१६ ।