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गाथा ३०५ ] लब्धिसार
[ २४५ विशेषार्थ-अवस्थित परिणाम होनेसे अनवस्थित आयामरूपसे तथा अनवस्थित प्रदेशपुजके अपकर्षणरूपसे गुणश्रेणि विन्यास सम्भव नहीं है। इसलिये पूरे उपशातकालके भीतर किये जाने वाले गणश्रेणिनिक्षेपके आयामकी अपेक्षा और अपकर्षित किये जाने वाले प्रदेश पुजकी अपेक्षा वह ( गुणश्रेणि ) अवस्थित होती है । अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयतक मोहनीयके अतिरिक्त शेष कर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप उदयावलिके बाहर गलितशेष होता है, परन्तु उपशान्तकषायके प्रथम समयसे लेकर उसीके अन्तिम समयतक गुणश्रेणिनिक्षेप उदयसे लेकर अवस्थित पायामवाला और अवस्थित प्रदेशोंकी रचनाको लिये हुए होता है। प्रथम समयमें गुणश्रेणिका जितने पायाम लिये प्रारम्भ किया उतने प्रमाण सहित ही द्वितीयादि समयोमें उतना ही आयाम रहता है, क्योकि उदयावलिका एक समय व्यतीत होने पर उपरितन स्थितिका एक समय गुणश्रोणिमे मिल जाता है। उपशान्तमोहके प्रथम समयमें जितना द्रव्य अपकर्षित करके गुणश्रेणिमे दिया उतना ही प्रतिसमय दिया जाता है, इसलिए अपकर्षितद्रव्यका प्रमाण भी अवस्थित है ।
उपशान्तकषायके प्रथम समयमें निक्षिप्त गुणश्रोणिनिक्षेपकी अग्रस्थिति, वह प्रथम गुणश्रेणिशीर्ष है। उस प्रथम गुणश्रोणिशीर्षके उदयको प्राप्त होने पर ज्ञानावरणादि कर्मोका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, क्योकि वहां एक पिण्ड होकर अन्तर्मुहर्तप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाओंका उदय होता है। सरल कथन इसप्रकार है-प्रथम समयवर्ती उपशातकषायका गुणश्रेणिशीर्ष वहां अविनष्टरूपसे उपलब्ध होता है। द्वितीय समयवर्ती उपशातकषायकी भी द्विचरम गुणश्रेणि गोपुच्छा वहां पर है । तृतीय समयवर्ती उपशातकषायकी त्रिचरम गुणश्रेणि गोपुच्छा वहापर उपलब्ध है । इसप्रकार क्रमसे प्रथम समयमें किये गये गुणश्रेणिनिक्षेपके आयाम प्रमाण ही गुणश्रेणि गोपुच्छाए वहां पर (प्रथमगुणश्रेरिण शीर्षमे) पाई जाती है । इस कारण दूसरे स्थानको छोडकर यही पर ( प्रथम गुणश्रेणिशीर्षके उदयकाल मे ) उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । यद्यपि अगले समयसे लेकर उपशांतकषायके अन्तिम समयतक इतनो ही गुणश्रेणि गोपुच्छाएं प्राप्त होती है, किन्तु वहां पर उन स्थिति विशेषोमे प्रकृति गोपुच्छा की अपेक्षा क्रमसे एक-एक गोपुच्छा-विशेष (चय) की हानि पाई जाती है। इसलिये गोपुच्छा विशेष -(चय) के लाभको लक्ष्यकर यथानिर्दिष्टस्थान ही उत्कृष्ट प्रदेशोदयका स्वामित्व कहा गया है । प्रकृति गोपुच्छा-विशेष लाभकी दृष्टिसे यदि यह कहा जावे कि अपूर्वकरणके