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लब्धिसार
[ गाथा २६८
करणकालके अन्तिम समयमे रची गई कृष्टियोंके पल्योपमके प्रसख्यातवेभागरूप प्रतिभाग द्वारा प्राप्त जघन्यकृष्टिसे लेकर अधस्तन प्रसंख्यातवे भागको छोडकर शेष बहुभाग प्रमाण सभी कृष्टियोको उस ( प्रथम ) समय मे उदयमे प्रविष्ट कराया जाता है, इसलिये सिद्ध हुआ कि सूक्ष्मसाम्पराय के प्रथम समयमे असख्यात बहुभाग कृष्टियोका वेदन होता है । प्रथम और अन्तिम समयमे रचित कृष्टियो मे से उपरिम ग्रौर ग्रवस्तन असख्यातवे भागप्रमाण कृष्टियोका सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे उदयाभाव है । इतनी विशेषता है कि प्रथम समयमे की गई कृष्टियोमे से नही वेदे जानेवाली उपरिम असख्यातवे भागके भीतरकी कृष्टियां अपकर्षण द्वारा ग्रनन्तगुणी हीन होकर मध्यमकृष्टिरूपसे वेदी जाती है तथा अन्तिम समयमे रची गई कृष्टियोमे से जघन्य कृप्टिसे लेकर नही वेदी जानेवाली श्रधस्तन असंख्यातवे भाग के भीतर की कृप्टिया अनन्तगुणी हीन होकर मध्यमकृष्टिरूपसे वेदी जाती है, क्योकि अपने रूपसे ही उनका उदयाभाव है, मध्यमरूपसे उनके उदयाभावका प्रतिषेध नही है । जिसप्रकार मिथ्यात्व के स्पर्धक अपने स्वरूपको छोड़कर अनन्तगुणे हीन होकर सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे उदयको प्राप्त होते है तथा सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वके स्पर्धक अपने स्वरूपको छोडकर मिथ्यात्वरूपसे उदयको प्राप्त होते हैं, इसमें कोई विरोध नही है । इसीप्रकार यहां भी उपरिम और अधस्तन असख्यातवे भागप्रमाण कृष्टिया मध्यमरूपसे वेदी जाती है इसमे कुछ निषिद्ध ही है।
द्वितीयादि सनयों में उदयानुदयकृष्टि सम्बन्धी निर्देश करते हैंविदियादिसु समयेसु हि छंडदि पल्ला संखभागं तु । आफु ददि हु पुव्वा हेट्ठा तु असंखभागं तु ॥ २६८ ॥
अर्थ — सूक्ष्मसाम्परायके द्वितीयादि समयोमे उदीर्ण हुई कृष्टियोके अग्राग्रसे पल्यके असख्यातवे भागप्रमाणको छोड़ता है तथा नीचे से अपूर्व असख्यातवे भागका स्पर्श करता है ।
१. ज. घ. पु १३ पृ. ३२०-३२३ ।
२ आफु ददि आस्पृशति वेदयति अवष्टभ्य गृह, रणातीत्यर्थः । ज. घ - मूल. पू. १८६६ । ज. ध अ. प.
१०३१ ।
३. क. पा सु. पृ. ७०५ सुत्र २८१ ।