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लब्धिसार
[ गाथा २६३-२६४ २०० ]
आगे पुरुषवेदके उपशमनकालके अन्तिम समयमें स्थितिबन्धके प्रमाणको प्ररपणा करते हैं
तच्चरिमे पुबंधो सोलसवस्साणि संजलणगाण । तदुगाणं सेसाणं संखेज्जसहस्सवस्ताणि ॥२६३॥
अर्थ-सवेद भागके अन्तिम समयमें पुरुषवेदका स्थितिबन्ध सोलह वर्षप्रमाण होता है और उससे दुगुणा अर्थात् ( १६४२ ) ३२ वर्षप्रमाण सज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध होता है । शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है ।
विशेषार्थ—पहले इन कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता था। उसने संख्यातगुणी हानिरूपसे घटकर सवेदभागके चरम समयमें पुरुषवेद और चार गग्वलन कपायोका स्थितिवन्ध क्रमशः १६ वर्ष व ३२ वर्ष हो गया, शेष कर्मोका तो अभी भी सत्यातहजार वर्पप्रमाण स्थितिबन्ध होता है।
अब पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिमें दो प्रावलि शेष रहनेपर होनेवाली नियान्तर का प्रतिपादन करते हैं
पुरिसम्स य पढमठिदी आवलिदोसुवरिदासु आगाला । पडिआगाला छिण्णा पडियावलियादुदीरणदा ॥२६४॥
अर्थ-पुरुपवेदकी प्रथमस्थितिमें दो आवलि शेष रहने पर आगाल और मन्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । प्रत्यावलिमे से ही उदीरणा होती है ।
विशेषार्थ-प्रथम और द्वितीय स्थितिके प्रदेशपु जोके उत्कर्षण-अपकर्षणवश परम्पर विपयसक्रमणको आगाल-प्रत्यागाल कहते है। द्वितीय स्थितिके प्रदेशजका प्रथम स्थितिम आना आगाल है तथा प्रथमस्थितिके प्रदेशपू जका प्रतिलोमरूपसे द्वितीय स्थितिमे जाना प्रत्यागाल है । पुरुपवेदकी प्रथम स्थितिमे एकसमय अधिक दो-आवलि
गाने तक आगाल-प्रत्यागाल होता है। श्रावलि और प्रत्यावलि शेष रहने पर भागाल-प्रत्यागान व्युच्छिन्न हो जाते है अथवा परिपूर्ण श्रावलि और प्रत्यावलि शेष
गार प्रागाल-प्रत्यागाल होकर पुन. तदनन्तर समयमे एक समयकम दो आवलि शेष मगार प्रगगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है, क्योकि उत्पादानुच्छेदका आश्रय 2. 7. १३ पु. २८५ ।