________________
गाथा २७६ - २८० ]
लब्धिसार
[ २१६
अर्थ - मायाकी प्रथम स्थिति में एकसमय अधिक प्रावलिकाल शेष रहनेपर संज्वलनमाया और लोभका तो मासप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तथा शेष कर्मोका क्रोधवत् कथन जानना ।
मायदुर्गं संजलणगमायाए छुहदि जाव पढमठिदी । भावलितियं तु उवरिं संकुहदि हु लोहसंजलणे ||२७६ ॥
अर्थ- — सज्वलनमायाका प्रथमस्थितिमे जबतक तीन प्रावलिया शेष रहती है तबतक मायाद्विक (अप्रत्याख्यान - प्रत्याख्यानरूप माया) के द्रव्यको सज्वलन मायामे ही सक्रमित करता है तथा उससे आगे सक्रमणावलीमे उनके द्रव्यका सज्वलनलोभमे सक्रमण करता है ।
विशेषार्थ - मायासज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समयकम तीन ग्रावलियो के शेष रहने पर प्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरणरूप दो प्रकारकी मायाके द्रव्यको माया सज्वलनमें सक्रान्त नही करता, किन्तु सज्वलन लोभमे सक्रान्त करता है' ।
मायाए पढमठिदी आवलिसेसेत्ति मायमुवसंतं । णय वकं तत्थंतिमबंधुदया होंति मायाए ॥ २८०॥
अर्थ – मायाकी प्रथमस्थितिमे आवलिप्रमाण काल अवशिष्ट रहनेपर उपशमनावलिके अन्तिम समयमे नवक समयप्रबद्ध बिना अन्य सर्व मायाका द्रव्य उपशमित होता है । उसी समय मे सज्वलनमायाका बन्ध व उदय व्युच्छिन्न होता है ।
विशेषार्थ - द्वितीय उपशमनावलिके अन्तिम समयमें एक समयकम दो ग्रावलि - प्रमाण नवबन्धको छोडकर तीनप्रकार ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, और सज्वलन) मायाका अन्तिम उपशामक होता है । उस समय सज्वलनमा उदय व्युच्छिन्न होते है, क्योकि उत्पादानुच्छेदमें यह कथन बन जाता है । माया सज्वलन की प्रथम स्थितिका एक समयकम एक अवलिप्रमाण द्रव्य शेष है, वह स्तिवुक सक्रम के द्वारा लोभसज्वलनमे विपाकको प्राप्त होता है ।
१ ज.ध पु १३ पृ. ३०३ ।
२.
ज ध. पु. १३ पृ. ३०३ - ३०४