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गाथा २६४-२६५ ] लब्धिसारे
[ २३७ वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोके भी सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्धसे घटकर कुछकम दो वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है जो बादरसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम स्थितिबन्धसे दूना है, क्योंकि क्षपकश्रेणिमे इस स्थलपर होनेवाला स्थितिबन्ध एक वर्षसे कुछकम होता है।
अव संक्रमणकाल सम्बन्धी अवधि का विचार करते हैंविदियद्धा परिसेसे समऊणावलितियेसु लोहदुगं । सटाणे उवलमदि हुण देदि संजलणलोह म्मि ॥२६४॥
अर्थ-दूसरे कृष्टिकरणकालमें एक समयकम तीन प्रावलियां शेष रहने पर दो प्रकारका लोभ (अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण लोभ) सज्वलनलोभमें संक्रांत नही होता, स्वस्थानमें ही उपशमाया जाता है ।
विशेषार्थ-एक समयकम तीन पावलि शेष रहनेपर सक्रमणावलि और उपशमनावलिका परिपूर्ण होना असम्भव है, इसलिये उस अवस्थामें अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण लोभ संज्वलनलोभमे सक्रमित नहीं होता, किन्तु स्वस्थानमें ही उपशमित होता है (अपने रूपसे ही उपशमता है) । श्रावलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है। प्रत्यावलिमें एक समय शेष रहनेपर सज्वलन लोभकी जघन्यस्थिति उदीरणा होती है ।
अब लोभत्रय को उपशमन विधि का कथन करते हैंबादरलोहादिठिदी श्रावलिसेसे तिलोहमुवसंतं । रणवकं किट्टि मुच्चा सो चरिमो थूलसंपराओ य ॥२६५॥
अर्थ-बादरलोभकी प्रथमस्थितिमे आवलि शेष रहनेपर नवक समयप्रवद्ध और कृष्टियोको छोड़कर तीन प्रकारके लोभका द्रव्य उपशान्त हो चुकता है। वह . अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्पराय होता है ।
१. ज. ध पु. १३ पृ. ३१७ । २. क पा. सु पृ. ७०३ सूत्र २६६ ।। ३. ज. प. पु. १३ पृ. ३१७-१८ । क. पा सु पृ ७०३ सूत्र २६७; घे. पु. ६ पृ. ३१४ ।
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