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लब्धिसार
[ गाथा २६२-२६३
कर्मोका स्थितिबन्ध सहस्रवर्ष पृथक्त्व प्रमाण होता रहा जो यथाक्रम संख्यात गुणहानियों के द्वारा घटकर दिवस पृथक्त्व प्रमाण हो जाता है' ।
किट्टीकरणखाए जाव दुचरिमं तु होदि ठिदिबंधो । वस्सां संखेज्जसहरुलागि श्रघादिठिदिबंधो ॥ २६२ ॥
अर्थ - कृष्टिकरणकालके द्विचरम स्थितिबन्धतक नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मो का स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है *
विशेषार्थ-लोभ सज्वलनकालके तीन भागो मे से दूसराभाग कृप्टिकरणकाल के द्विचरम स्थितिबन्ध समाप्त होनेतक नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मो का स्थितिबन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण ही होता है, क्योकि घातिया कर्मो के स्थितिवधापसरण होने के समान अघातिया कर्मोके स्थितिबन्धका बहुत अधिक अपसरण होना असम्भव है । इसलिए द्विचरम स्थितिबन्धतक इनका स्थितिबन्ध नियमसे सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है ।
किट्टीयाचरिमे लोहस्संतो मुहुत्तियं बंधो। दिवसंतों घादीणं वेवस्संतो अवादीणं ॥ २६३॥
श्रर्थ-कृष्टिकरणकालमे अन्तिम स्थितिबन्ध लोभ सज्वलनका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, घातिया कर्मो का कुछ कम एकदिनप्रमाण तथा अघातियाकर्मोका कुछकम दो वर्षप्रमाण होता है ।
विशेषार्थ - कृष्टिकरण कालमे जो अन्तिम स्थितिबन्ध होता हैं, वह बादरसाम्परायिकका अन्तिम स्थितिबन्ध है । वह स्थितिबन्ध लोभ सज्वलनका अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण होता है जो क्षपकश्रेणि मे होनेवाले स्थितिबन्धसे दूना है ; ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोका कुछकम एकदिन रात्रिप्रमाण है जो क्षपकके बादरसाम्परायिकगुणस्थानमे होनेवाले अन्तिम स्थितिबन्धसे दूना है तथा नाम - गोत्र पौर
१. ज ध. पु. १३ पृ. ३१६ ।
२
धपु ६ पृ. ३१४ | क पा सुत्त पृ ७०३ चूणिसूत्र २६२ ।
३
ज घ पु १३ पृ. ३१६ ।
४. घ. पु ६ पृ. ३१४ । क पा सु पृ. ७०३ सूत्र २६३-२६५ ॥