________________
गाथा २६७ ] लब्धिसार
[ २३६ प्रथमस्थितिकी रचना सूक्ष्मसाग्परायिकके काल बराबर होती है, परन्तु ज्ञानावरणादिका उस कालमे होने वाला गुणश्रेणिनिक्षेप सूक्ष्मसाम्परायके कालसे विशेष अधिक होकर उदयावलिके बाहर निक्षिप्त हुआ है, क्योकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमे निक्षिप्त हुआ गुणश्रेणिनिक्षेप गलित शेष होकर इस समय तत्प्रमाण अवशिष्ट रहता है ।
प्रागे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके प्रथम समयमें उदीयमान कृष्टियोंका निर्देश करते हैं
पडमे चरिमे समये कदकिट्टीणग्गदो दु आदीदो। मुच्चा असंखभागं उदेदि सुहुमादिमे सव्वे ॥२६७॥
अर्थ-प्रथम समयमे जो कृप्टिया की गई उनके अग्रान मे से असख्यातवेभाग को छोड़कर और अन्तिम समयमे की गई कृप्टियो की जघन्य (आदि) कृष्टिसे लेकर असंख्यातवे भागको छोडकर अन्य सकल कृष्टियां सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे उदीर्ण होती हैं। [सक्षेपमे १० वे गुणस्थानके प्रथम समयमे कृष्टियो के अधस्तन व उपरिम असख्यातवेभाग को छोड कर शेष असख्यात बहुभाग का वेदन करता है ।
विशेषार्थ- कृष्टिकरण कालमे से प्रथम और अन्तिम समयमे की गई कृप्टियोको छोड कर शेष समयोमे जो अपूर्वकृष्टियां की गई है वे सभी सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे उदीर्ण हो जाती है, किन्तु यह सदृश धनकी विवक्षासे है, अन्यथा उन सभीका प्रथम समयमें पूर्ण रूपेण उदीर्ण होनेका प्रसङ्ग आ जावेगा, परन्तु ऐसा नही है, क्योकि उनमे से असख्यातवे भागप्रमाण सदृश धनवाले परमाणु प्रदेशपुजका ही अपकर्ष-प्रतिभागके अनुसार उदय होता है ।
प्रथम समयमे जो कृष्टिया रची गई है उनके उपरिम असख्यातवेभागको छोड़कर शेष सर्व कृष्टिया प्रथम समयमे उदीर्ण हो जाती है। यह भी सदृश धनकी विवक्षामे कहा गया है, क्योकि उन सबका एक समयमे पूर्णरूपेण उदयरूप परिणाम नही पाया जाता अतः पल्योपमके असख्यातवेभागसे खण्डित एकभागप्रमाण उपरिम असंख्यातवे भागको छोड़कर प्रथम समयमे की गई कृष्टियोका शेष जो असंख्यात बहुभाग बचता है वह सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे उदीर्ण हो जाता है। कुष्टि
१. ज. ध पु १३ पृ. २१६-२०, ध पु ६ पृ ३१५।
घ. पु. ६ पृ ३१५; क. पा सुत्त पृ ७०४ सूत्र २७४-२७७ । ज ध पु १३ १ ३२०-२१॥