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गाथा २६१ ] लब्धिसार
[ २३५ चाहिए । अथवा सदश घनवाले अनन्त परमाणुप्रोको कृष्टिरूपसे ग्रहण कर यह कथन करना चाहिए, क्योकि उत्तरोत्तर एक-एक अविभाग प्रतिच्छेदोकी क्रम वृद्धि यहा पर नही पाई जाती इसलिये इनकी कृष्टि सज्ञा है । पुन' अन्तिम कृष्टिसे ऊपर जघन्य स्पर्धककी प्रथमवर्गणा अनन्तगुणी है ।
लोभवेदककालके द्वितीय त्रिभागकी कृष्टिकरण कालसज्ञा है, क्योकि यहां पर स्पर्धकगत अनुभागका अपर्वतनकर कृष्टियोको करता है। जिसप्रकार क्षपकश्रेणिमे कृष्टियोको करता हुआ सभी पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोका पूर्णरूपेण अपवर्तनकर कृष्टियो को ही स्थापित करता है, उस प्रकार उपशमश्रेणिमे सम्भव नही है, क्योकि सभी पूर्वस्पर्धकोके अपने-अपने स्वरूपको न छोड़ कर उसीप्रकार अवस्थित रहते हुए सर्व स्पर्धको मे से असख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकर एक स्पर्धककी वर्गणाओके अनन्तवेभागप्रमाण सूक्ष्मकृष्टियोंकी रचना होती है ।
अंब कृष्टिकरणकालमें स्थितिबन्धके प्रमाणको प्ररूपणा के लिए तीन गाथाओं द्वारा कथन करते हैं
विदियद्धा संखेज्जाभागेसु गदेसु लोभठिदिबंधो। अंतोमुहृत्तमेत्तं दिवसपुधत्तं तिघादीणं ॥२६१।।
अर्थ-लोभसज्वलन कालके तीनभागोमे से दूसरे कालके (भागके) सख्यात बहभाग बीत जानेपर सज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तमात्र होता है शेप तीन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध पृथक्त्वदिनप्रमाण होता है ।
विशेषार्थ- कृष्टिकरणकाल अर्थात् द्वितीयकालके अन्तिम समयको प्राप्त किये बिना वहासे नीचे सरककर उस कालके सख्यात भागोके अन्तिम समयमे सज्वलनका तात्कालिक स्थितिबन्ध पूर्वमे होनेवाले दिवस पृथक्त्वप्रमाणसे यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हो जाता है । इससे पहले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया
१. ज. ध पु. १३ पृ ३१४-१५; ध. पु. ६ पृ. ३१३ । २. क. पा. सुत्त पृ ७०३ चूर्णिसूत्र २६०-६१; ध. पु. ६ पृ ३१४ ।