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लब्धिसार
[ गाथा २८१-२८२ २२० ]
अब लोभत्रयके उपशमविधानका कथन दो गाथाओं में करते हैंसे काले लोहस्स य पढमदिदिकारवेदगो होदि । ते पुण बादरलोहो माणं वा होदि णिक्खेत्रो ॥२८१॥
अर्थ-उसो समय सज्वलनलोभकी प्रथमस्थितिका वेदक व कारक होता है । मानकी विधिके अनुसार बादरलोभका निक्षेप होता है।
विशेषार्थ-उसी समय अर्थात् माया सज्वलनकी प्रथम स्थिति उच्छिष्टावलि शेष रह जाने पर द्वितीय स्थितिसे लोभसज्वलनके प्रदेशपु जका अपकर्षणकर उदयादि गुणश्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ लोभसज्वलनकी प्रथम स्थितिको अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थापितकर वेदन करता है। यहा से लेकर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय पर्यन्त जो लोभवेदक काल है, उस कालके तीन भाग करके उनमेसे साधिक दो त्रिभागप्रमाण बादर लोभसज्वलनकी प्रथमस्थिति इस समय की है, क्योकि यहा से उपरिम समस्त लोभवेदककालके कुछकम तीसरे भागप्रमाण सूक्ष्मलोभ वेदक काल होता है । सूक्ष्मलोभ वेदककालसे साधिक दूने बादरलोभवेदककालको एक प्रावलिप्रमाण अधिक करके वादरसाम्परायिक जीव प्रथमस्थिति करता है । इसप्रकार इतनी प्रथम स्थितिको करके तीनप्रकारके लोभको उपशमाने वाले जीवके लोभ सज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम एकमास होता है, क्योकि अन्तिम समयवर्ती माया वेदकके स्थितिबन्ध पूरा एक मास होता है उससे एक अन्तर्मुहूर्त घटाकर इस समय लोभसज्वलनके स्थितिवन्धको प्रारम्भ करता है । शेषकर्मो का स्थितिबन्ध पूर्वके स्थितिबन्धसे सख्यातगणा हीनरूपसे प्रवृत्त होता हुआ अभी भी सख्यातहजार वर्षप्रमाण ही होता है क्योकि सख्यात हजारवर्षोके अनेक भेद होते हैं। ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोका प्रमाण पूर्वोक्त पल्योपमका असख्यातवाभाग व अतन्तगुणी हानिरूप होता है ।
पढमहिदि अलुते लोहस्त य होदि दिणुपुधत्तं तु । वस्तसहस्लपुधत्तं सेसाणं होदि ठिदिबंधो ॥२८॥
अर्थ-वादरलोभकी प्रथम स्थिति-अर्थ के अन्तमे सज्वलनलोभका स्थितिबन्ध पृथक्त्व दिवस और शेष कर्मोका पृथक्त्व हजार वर्षप्रमाण होता है । १. ज. ध पु. १३ पृ ३०४-३०६ व क. पा सु. पृ ७०१-७०२ ।