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गाथा २८६ ]
लब्धिसार
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ज्यो का त्यो द्रव्य रहता है । इसका प्रमाण बतलाते है ' - विवक्षित समय में अपकृष्टद्रव्यको पल्यके असंख्यातवेभागका भाग देने पर एक भागमात्र द्रव्य कृष्टिमें देने योग्य है । इसमें से पूर्वोक्त तीन प्रकारका द्रव्य घटाने पर किचिदून हुआ । (यही किचिदून द्रव्य मध्यमखंड द्रव्य है ।) इतना द्रव्य सकलकृष्टियोमे देना है तो एककृष्टिमें कितना देना होगा ? ऐसी त्रैराशिक विधि करके उस द्रव्यमे पूर्व प्रपूर्वकृष्टियों के प्रमाणका भाग देने पर एक कृष्टिमें
१
अब द्वित्तीय समयमे अपकृष्ट द्रव्य ३६२० मे से श्रधस्तन शीर्षविशेषद्रव्य ४४८, श्रधस्तन कृष्टिद्रव्य १०२४, उभयद्रव्य विशेषद्रव्य १२४८, इन तीनोको घटानेपर ३९२०- (४४८ + १०२४ + १२४८ ) = १२०० शेष रहे । ये शेष बचे १२०० परमाणुप्रमाण द्रव्य ही मध्यमखण्डद्रव्य है : इसे समस्त पूर्व-पूर्व कृष्टियो में ( ८ + ४ = १२ कृष्टियोमे) समान खण्ड करके देने पर सभी को अर्थात् प्रत्येक कृष्टिको १००-१०० द्रव्य प्राप्त होता है । उसे मिलाने पर रचना ऐसी है—
२७२+१००
२८८ + १००
३०४+१००
३२०+१००
३३६+१००
३५२+१००
३६८ + १००
३८४ + १००
४००+१००
४१६+१००
४३२+१००
४४८+१००
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॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥
=
=
=
३७२ • चरमपूर्वकृष्टि
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३८८
४२०
= ४३६
४०४
॥ ॥ ॥
४५२
४६८
४८४
ܘܘܥ
५१६
== ५३२
५४८
- प्रथमपूर्वकृष्टि
- चरमप्रपूर्वकृष्टि
नोट -- यहां इतना स्मरण रखना चाहिये कि उभयद्रव्यविशेषद्रव्य निकालनेके लिए यहा निम्नविधि है -
यहा एक गुणहानि = १७६ ( गुरणहानि वस्तुस्थित्या खण्डरूप नही होती पर सप्ट या दृष्टान्त तो सदृष्टि या दृष्टान्त ही ठहरा, वह दान्तिसे सर्वदेश साम्य नही रखता, ऐसा जानना चाहिये) क्योकि ५४८ रूप प्रथमकृष्टि १७ स्थानो को पार करनेके बाद उसके श्रागे एकस्थान जाने पर श्राघी रह जाती है; श्रत १७ स्थान, गुणहानिका प्रभाग होगा । यथा ५१२ कर्मपरमाणुरूप प्रथम निषेकसे = स्थान के बाद नवमस्थानमे जाकर २५६ रह जाते हैं तो वहा गुणहानिका प्रमाण ८ होता है । वैने ही यहा पर ५४८ रूप प्रथमकृष्टि चयहीन होती हुई ऐसे जाती है - ५४८, ५३२, ५१६ - प्रथम प्रपूर्वकृष्टि ५००, ४६४, ४६८, ४५२, ४३६, ४२०,
४०४, ३८८, ३७२ ३५६, ३४०, ३२४, ३०८, २६२, २७६.....
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सकल अपकृष्टद्रव्य १६०० + ३२० ५५२० । सकल अपकृष्टद्रव्य --- सकलकृष्टियां ५५२० ÷ १२=४६० मध्यमघन