________________
२१० ]
लब्धिसार
[ गांधी २६७
सक्रमको छोडकर अध' प्रवृत्तसक्रम कैसे सम्भव है, ऐसी आशंका नही करना चाहिए, क्योकि बन्धके उपरत हो जाने पर भी तीन सज्वलनकषाय और पुरुषवेदके नवकबधका ग्रव प्रवृत्तसक्रम होता है ।
अवेद भागके प्रथम समयमे बहुत प्रदेशपुजको संक्रमाता है, तदनन्तर समयमें विशेष हीन प्रदेशपु ंजको सक्रमाता है, क्योकि बन्धावलि व्यतीत होनेके बाद विवक्षित समयप्रबन्द्वको अधप्रवृत्त भागहारसे भाजितकर जो एकभाग प्राप्त हो उसे प्रथम समयमें संक्रमित करता है । पुन दूसरे समयमे जो कि प्रथम समयमे अपने द्रव्यका असंख्यातवांभाग उपशान्त और सक्रमित हो गया है, उससे हीन शेष उसी समयप्रबद्धको प्रध प्रवृत्त भागहारके द्वारा भा जितकर जो एक भाग प्राप्त हो उसे सक्रमित करता है । इसकारण से प्रत्येक समयमे विशेषहीन ही प्रदेशपु ज सक्रमित होता हुआ जानना चाहिए । यह क्रम एक समयप्रबद्धका ही है ।
चार प्रकारकी वृद्धि और हानिरूपसे परिरगत हुए योगोके द्वारा बन्धको प्राप्त हुए नाना समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत हो जाने पर सक्रमभावके योग्य होकर पूर्वके योगके अनुसार ही सक्रमित होते हैं इसलिए वहा विशेष हानिरूपसे सक्रमका नियम नही है, किन्तु सख्यातवे और असख्यातवे भागरूपसे कदाचित् विशेषहीन और कदाचित् विशेष अधिक तथा कदाचित् सख्यातगुणा हीन एव कदाचित् सख्यातगुणा, कदाचित् ग्रसख्यातगुणा हीन, कदाचित् असख्यातगुणा नाना समय प्रबद्ध सम्वन्धी सक्रमद्रव्य होता है । अत एक समयप्रबद्धसे सम्बन्धित प्रदेशपु ज ही विशेषहीन होकर सक्रमित किया जाता है' ।
आगे अपगतवेदके प्रथम समय में स्थिति बन्ध सम्बन्धी कथन करते हैंपढमावेदे संजलणाणं तोमुहुत्तपरिहीणं ।
वस्ताणं बत्तीसं संखसद्द स्लियर गाठिदिबंधो ॥ २६७॥
अर्थ-अपगतवेदके प्रथम समयमे चार सज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम वत्तीस वर्षप्रमाण और शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यात हजारवर्ष है । विशेषार्थ — सवेदी जीवके अन्तिम समयमे सज्वलनोका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण ३२ वर्षप्रमाण होता है, क्योकि उस स्थितिबन्धका वही पर्यवसान हो जाता है । इस
वपु १३ पृ २८७ - २८६ ।