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गाधा २७१ ]
लब्धिसार
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सज्वलनमें संक्रमण करता है ।।
विशेषार्थ-गाथामें जो दो प्रकारका क्रोध कहा है उससे अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणक्रोधका ग्रहण होता है, क्योंकि अन्यप्रकार सम्भव नही है । ये दोनो क्रोध संज्वलनक्रोधमें गुणसंक्रमणके द्वारा तबतक सक्रमित होते है, जब तक सज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थिति तीन आवलिप्रमाण शेष रहती है, क्योंकि इस अवस्थाके भीतर उसमें उन दोनोके सक्रमित होनेमें विरोधका अभाव है। संक्रमणावलिरूपसे प्रथमावलिको व्यतीतकर पुन' दूसरी पावलिके प्रथम समयसे उपशमनावलि कालके द्वारा उस द्रव्यको उपशमाता है । अत तीसरी आवलिको उच्छिष्टावलिरूप से छोड़ देता है इस कारणसे तीन आवलिया शेप रहने तक सज्वलनक्रोधमे दो प्रकारके क्रोधका सक्रम विरोधको नही प्राप्त होता ।
क्रोधसज्वलनकी प्रथम स्थिति में परिपूर्ण तीन आवलियोका अभाव होनेपर अर्थात् एक समयकम तीन आवलियोके शेष रहनेपर दो प्रकारके क्रोधका सज्वलनक्रोध मे सक्रम नही होता, किन्तु मानसज्वलनमे सक्रम होता है, क्योकि दूसराप्रकार सम्भव नही है। ___ उपशमनावलीके अन्तिम समयमें होने वाले किया विशेषका कथन करते हैं
कोहस्स पढमठिदी आवलिसेले तिकोहमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति कोहस्स ॥२७१।।
अर्थ-सज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमे एक आवलि शेप रहनेपर तीनो प्रकार का क्रोध उपशान्त हो जाता है, किन्तु नवक समयप्रबद्ध उपशान्त नही हुया उस समय सज्वलनक्रोधका अन्तिम बन्ध व उदय होता है।
विशेषार्थ-प्रत्यावलिके उदयावलिमे प्रविष्ट हो जाने पर सज्वलनको की प्रथमस्थिति आवलिमात्र शेष रह जाती है। इसका नाम उच्छिष्टावलि है। उपशामनावलि बीत जाने पर उच्छिष्टावलिके प्रथम समयमे दो समयकम दो श्रावलि नवक समयप्रबद्धोको छोडकर संज्वलनक्रोधके शेष सभी प्रदेणपुंज प्रशस्त उपशामनारूपसे उपशान्त हो जाते है । प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणीरूपसे उपशमित किये जाते
१. ज.ध.पु १३ पृ. २६३-६४ ।