________________
लब्धिसार
[ गाथा २७० २१२
इस क्रमसे जब क्रोध संज्वलनको आवलि-प्रत्यावलि शेष रहती है तव द्वितीय स्थितिमे से अागाल और प्रथमस्थितिमे से प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है । यहा पर आवलि ऐसा कहनेपर उदयावलिका ग्रहण होता है तथा प्रत्यावलिसे उदयावलिके वाहरकी आवलिका ग्रहण होता है । "सज्वलन क्रोधकी प्रथमस्थितिमे प्रावलि-प्रत्यावलि शेष रहनेपर पागाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है," यह उत्पादानुच्छेदका आश्रय लेकर कहा गया है, क्योकि प्रथम स्थितिमे दो आवलियोके शेष रहने तक अागालप्रत्यागाल होकर एक समयकम दो आवलियोके शेष रहनेपर आगाल-प्रत्यागाल की व्युच्छित्ति विवक्षित है । आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाने पर सज्वलनक्रोधका गुणश्रेणि निक्षेप नही होता, क्योकि सबसे जघन्य भी गुणश्रेणि आयाम एक आवलिप्रमाण है, उससे कम सम्भव नही है। इसलिए प्रत्यावलिमें से ही प्रदेशपुजका अपकर्षण करके असख्यात समयप्रवद्धोकी उदीरणा करता है। प्रत्यावलिमे एक समय शेष रहनेपर क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थिति उदीरणा होतो है, क्योकि उदयावलिके वाहर जो एक स्थिति शेष है उसमेसे अपकर्षणकर उदयावलिमे प्रवेश कराने पर जघन्य स्थिति उदीरणा होती है । उसी समय अर्थात् संज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक प्रावलिप्रमाण काल शेष रहनेपर चार संज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध क्रमसे ३२ वर्षसे घटकर चार मास प्रमाण हो जाता है। शेष कर्मोका स्थितिवन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, क्योकि ज्ञानावरणादि कर्मोके सख्यातवर्षप्रमाण पूर्व स्थितिवन्धसे सख्यातगुणा हीन-सख्यातगुणा हीन ऐसे सख्यातहजार स्थितिबन्धोके व्यतीत हो जानेपर भी यहां पर उनका स्थितिवन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है। यहां पर स्थितिवन्धका अल्पबहुत्व पूर्ववत् है।
अथानन्तर क्रोधद्रव्य के संक्रम विशेषका कथन करते हैंकोहदुगं संजलणगकोहे संछुहदि जाव पढमठिदी । भावलितियं तु उवरि संछुह दि हु माणसंजलणे ॥२७॥
प्रयं-सज्वलनक्रोधमे दो प्रकार ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण ) कोषका तब तक सक्रमण करता है जब तक क्रोधसज्वलनको प्रथमस्थितिमें तीन पावलियां (सक्रमावलि, उपशामनाबलि, उच्छिप्टावलि ) शेष रहती हैं। उसके बाद मान १. जय. पु १३ पृ २६०-२६३ ।