________________
गाथा २७४ ]
लब्धिसार
[ २१५
प्रमारण होकर मानसज्वलन के वेदककाल से एक अवलिप्रमाण अधिक होती है । पकर्षित द्रव्यका असख्यातवाभाग प्रथमस्थिति में दिया जाता है, शेष बहुभागको द्वितीय स्थिति में देता हुआ द्वितीय स्थिति के प्रथम निषेकमे असख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंजका सिंचन करता है, क्योकि प्रथम स्थिति के गुणश्रेणिशीर्षरूपसे अवस्थित अन्तिम निषेकमे असंख्यात समयप्रबद्ध निक्षिप्त करता है । परन्तु द्वितीयस्थितिके प्रथमनिषेकमें निक्षिप्त किये जाने वाले द्रव्यका प्रमाण एक समय प्रबद्ध के असख्यातवे भागप्रमाण होता है, क्योकि वह अपकर्षितद्रव्यको डेढगुणहानिसे भाजित करने पर प्राप्त हुआ है । इससे ऊपर सर्वत्र प्रतिस्थापनावलिप्रमाण स्थितिको छोड़कर अन्तिम स्थितितक विशेष ( चय ) हीन द्रव्यको निक्षिप्त करता है । इसीप्रकार मानवेदकके द्वितीयादि समयोमे प्रथम और द्वितीय स्थिति मे प्रदेशोका विन्यास क्रम होता है । इतनी विशेषता है कि प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणिरूपसे प्रदेशपु जका अपकर्षणकर उदयादि गुणश्रेणिका जितना आयाम गलित हो जावे उससे शेष रहनेवाले प्रायाममे निक्षेप होता है ।
जिस समय क्रोधसज्वलन के बन्ध - उदय व्युच्छिन्न होते है उस समय तीनप्रकार ( प्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन) मानका श्रायुक्त (उद्यत ) क्रिया द्वारा उपशामक होता है । उस समय तीन संज्वलन ( सज्वलन मान - माया - लोभ) का स्थिति - बन्ध अन्तर्मुहूर्तकम चार मास होता है और शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातहजार वर्ष होता है,' क्योकि अनन्तर पूर्व सज्वलनोका स्थितिबन्ध पूर्ण चार माह कहा गया है और बधापसरणका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है । शेष कर्मोका स्थितिबन्ध यद्यपि संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है तथापि श्रनन्तरपूर्वके स्थितिबन्धसे सख्यातगुणा हीन है । इसप्रकार तीन मानके उपशमको प्रारम्भ करके प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणिरूप से उपशमाने वालेके सख्यातहजार स्थितिबन्धोके द्वारा सज्वलनमानकी प्रथमस्थिति क्षीण होती जाती है ।
माणदुर्ग संजलगमाणे संकुद्ददि जाव पढमठिदी | आवलितियं तु उवरिं माया संजल गेय संछुहदि || २७४ ||
पा. सु. पृ ६६६ सूत्र २१६ - २०; ज. ध. पु. १३ पृ २६७-६८; ज.ध. मूल पृ. १८५४ । ज ध. पु. १३ पृ. २६५-२६८ ।
२.