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लब्धिसार
[ गाथा २६०-२६२ २०६ ] होता है, परन्तु नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोका अभी भी संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबंध प्रारम्भ नही हुना, इसलिए उनका असख्यातगुणा हीन ही स्थितिबन्ध प्रवृत्त रहता है। इन स्थितिबन्धोका अल्पबहुत्व इसप्रकार है
मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तरायका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है । उससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असख्यातगुणा है, उससे वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेषाधिक है। इसक्रम से सख्यात हजार स्थितिवन्धोके व्यतीत होनेपर स्त्रीवेद उपशमित हो जाता है ।
___ अब सात नो कषायोंकी उपशामना एवं क्रियाविशेष सम्बन्धो कथन तीन गाथाओं के द्वारा करते हैं
थीउवसमिदाणंतरसमयादो सत्त णोकसायाणं । उवसमगो तस्सद्धा संखेज्जदिमे गदे तत्तो ॥२६०॥ णामदुग वेयणियविदिबंधो संखवस्सयं होदि । एवं सत्तकसाया उवसंता सेसभागते ॥२६१॥ रणवरि य पुवेदस्स य णवकं समऊणदोरिणावलियं । मुच्चा सेसं सव्वं उपसंतं होदि तच्चरिमे ॥२६२॥
अर्थ-स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर सात नोकषाय का उपशामक होता है । सात नोकषायसम्बन्धी उपशामना कालके सख्यातवे भाग बीत जानेपर नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मोका सख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। इसप्रकार शेषभागके अन्त समयमे सात नोकषाय उपशान्त हो जाती है, किन्तु पुरुषवेदके एक समयकम दो आवलिमात्र नवकसमयप्रवद्धको छोड अवशेष सबको उपशमाता है ।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर अन्य स्थितिकाडक और अन्य अनुभागकाण्डक तथा अन्य स्थितिबन्ध होता है । विशेष यह है कि स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डक तो मोहनीयकर्मको छोड कर शेप कर्मोका होता है, क्योकि इस स्थल पर मोहनीयकर्मका स्थितिघात व अनुभागघात युक्ति व सूत्र दोनोसे निषिद्ध है, किन्तु
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ज घ. पु. १३ पृ. २८०-८२ ।