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लब्धिसार
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[ गाथा २५७-२५८
कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातगुणे हीन क्रमसे बन्धको प्राप्त होता हुआ सख्यातहजार
वर्षप्रमाण जानना चाहिए' ।
अब स्थितिबन्धा पसरण सम्बन्धी विशेष कथन करते हैंठिदिबंधाणोसरणं एवं समयष्पबद्धसहि किच्चा । उत्तं णाणादो पुण ण च उत्तं अणुत्रवत्तीदो || २५७॥
अर्थ - एक समय मे जितना स्थितिबन्ध कम होता है उतना स्थितिबधापसरण का प्रमाण कहा गया है । एक स्थितिबन्धापसरण कालतक वही प्रमाण रहता है, क्योकि प्रत्येक समयमे नाना स्थितिबधापसररणकी प्राप्ति कही गई है ।
विशेषार्थ - एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व एक स्थितिवन्धाप सरणकाल ये दोनो तुल्य होते हुए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हैं । स्थितिवन्धापसर के प्रथम समयमे जितनी स्थिति कम होकर स्थितबन्ध होता है, अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रत्येक समयमे उतना ही स्थितिबन्ध होता रहता है । इसीलिए एक स्थितिबन्धापसरण कालमे नानापनेकी अनुपपत्ति कही गई है |
नपुंसकवेद की उपशामना के पश्चात् स्त्रीवेदको उपशम क्रिया का कथन आगे की गाथा में करते हैं
एवं संखेज्जेसु ट्ठिदिबंध सहस्सगेसु तीदेसु ।
संव समदेतत्तो इत्थि च तदेव उवसमदि ॥ २५८ ॥
अर्थ — इसप्रकार सख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होने पर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा नपु सकवेदका उपशम होता है । तत्पश्चात् उसीप्रकार नपु सकवेद के उपशम सदृश अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा स्त्रीवेदका उपशम करता है ।
विशेषार्थ - नपुसकवेद प्रतिसमय प्रसख्यातगुणी श्रेणिरूपसे उपशमाया जाता हुग्रा क्रमसे उपशान्त होता है । इसप्रकार सख्यातहजार स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर नपुसकवेदको उपशमितकर तदनन्तर समयसे लेकर स्त्रीवेदका उपशम आरम्भ करता
। उसीसमय मोहनीयकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोके पहले आरम्भ किये गये स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोकी समाप्ति हो जानेके कारण अपूर्व स्थितिकाण्डक और
१. ज ध. पु १३ पृ २८६ - २६० ।