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गाथा २४८ - २४६ ]
लब्धिसार
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स्थितिसम्बन्धी सर्व द्रव्य प्रथम और द्वितीय स्थितियोमे सक्रमित हो जाता है । इस विधिसे किये जाने वाले अन्तरको अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा निर्लेप कर दिया जाता है, यह सिद्ध हुआ' ।
अन्तरकरण की निष्पत्ति के अनन्तर समय में होने वाली क्रिया विशेष को
बताते हैं
सत्तकरणाणि यंतरकदपढमे होंति मोहणीयस्स । इगिठाय बंधुओ ठिदिबंधो संखवस्तं च ॥ २४८॥ अणुपु०वी संकमणं लोहस्स असंकमं च संस्स | पढमोवसामकरणं छावलितीदेसुदीरणदा ॥ २४६ ॥
अर्थ - अतर कर चुकने के प्रथम समयमे मोहनीयकर्म सम्बन्धी सातप्रकारके करण प्रारम्भ होते है-मोहनीयकर्मका एक स्थानीय बध, एक स्थानीय उदय, मोहनीयकर्मका सख्यातवर्षका स्थितिबध, मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसक्रम, सज्वल लोभका असक्रम, नपुसकवेदकी उपशमक्रियाका प्रारम्भ, छह प्रावलियोके बीत जाने पर मोहनीयकर्मकी उदीरणा ।
विशेषार्थ - अन्तर समाप्तिका जो काल है उसी समय से ही ये सात करण प्रारम्भ हुए है' । उनमेसे मोहनीय कर्मका आनुपूर्वीसक्रम यह प्रथम करण है । यथास्त्रीवेद और नपु सकवेदके प्रदेशपु जको यहासे लेकर पुरुषवेदमे नियमसे सक्रान्त करता है । पुरुषवेद, छह नोकषाय तथा प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यानके प्रदेशपुञ्जको क्रोधसंज्वलनमें सक्रमित करता है अन्य किसीमे नही । क्रोध सज्वलन और दोनो प्रकार के मानसम्बन्धी प्रदेशपुज को भी मान सज्वलन में नियमसे सक्रमित करता है, अन्य किसी नही । मानसज्वलन और दोनो प्रकारकी मायाके प्रदेशपु जको नियमसे मायासज्वलनमे निक्षिप्त करता है तथा मायासज्वलन और दोनो प्रकारके लोभ सम्बन्धी प्रदेशपु जको नियमसे लोभसज्वलन मे निक्षिप्त करता है, यह श्रानुपूर्वीसक्रम है । पहले चारित्रमोहनीय प्रकृतियो का प्रानुपूर्वीके बिना प्रवृत्त होता हुआ सक्रम इस समय इस प्रतिनियत आनुपूर्वीसे प्रवृत्त होता है ।
१. ज.ध. पु१३ पृ २५६-२६३ ।
२. ज. ध. पु. १३ पृ. २६३ । क. पा. सु पृ ६६०; ध. पु ६ पृ. ३०२ ।