________________
गाथा २४५-२४७ ] लब्धिसार
[ १६५ अर्थ-अन्तरकरण करनेके प्रथम समयमें अन्य स्थितिबन्ध, अन्य स्थितिकाडक, अन्य अनुभागकाण्डक होता है । एक काण्डकोत्कीरणकालमें अन्तर कार्यकी समाप्ति हो जाती है।
विशेषार्थ-जिस समय अन्तरकरण करनेका आरम्भ किया उसी समय पूर्वके स्थितिबन्ध, स्थितिकांडक और अनुभागकाडक समाप्त हो जानेके कारण अन्य स्थितिबंधको असंख्यातगुणा हीनरूपसे बाधनेके लिए आरम्भ किया, अन्य स्थितिकाडक पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाणवाला ग्रहण किया और शेष अनुभागके अनन्त बहुभाग को ग्रहण किया । हजारों अनुभागकाण्डकोको भीतरकर होनेवाले स्थितिकाण्डककालके समान अंतरकरणका काल होता है। अतः एक स्थिति कांडकोत्कीरणकालके द्वारा अंतरको सम्पन्न करता है।
अब तीन गाथाओं के द्वारा अन्तरकरण करने को विधि बतलाते हैंअंतरहेदुक्कीरिददव्वं तं अंतरम्हि ण य देदि । बंधं ताणंतरजं बंधाणं विदियगे देदि ॥२४५॥ उदयिल्लाणंतरजं सगपढमे देदि बंधविदिये च । उभयाणंतरदव्वं पढमे विदिये च संछुहदि ॥२४६॥ अणुभयगाणंतरजं बंध ताणं च विदियगे देदि । एवं अंतरकरणं सिझदि अंतोमुहुत्तेण ॥२४७॥
अर्थ-अन्तरकरण करनेके लिए उत्कीरित द्रव्यको अन्तरायाममे नही देता है, किन्तु जो कर्मप्रकृति मात्र बधती ही है उनके उत्कीरित द्रव्यको द्वितीय स्थितिमें देता है। जो कर्मप्रकृतियां उदय प्राप्त है उनको प्रथमस्थितिमे देता है और द्वितीय स्थितिमें भी देता है। जिन कर्मप्रकृतियोका बध और उदय दोनो है उनके उत्कीरित द्रव्यको प्रथम और द्वितीय दोनो स्थितियोमे देता है । जिन कर्मप्रकृतियोका न तो वध होता है और न उदय है उन प्रकृतियोके उत्कीरित द्रव्यको द्वितीय स्थितिमें देता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अन्तरकरणकी सिद्धि (समाप्ति) होती है।
१. ज. प. पु १३ पृ. २५५-५६ ।