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लब्धिसार
[ गाथा २४० अर्थ-सख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर मन पर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायका अनुभागबन्ध देशघाति होता है। पश्चात् सख्यातहजार स्थितिवन्ध व्यतीत होने पर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय कर्मोका अनुभागवन्ध देशघाति हो जाता है । पुन' इसीप्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय कर्मोंका अनुभागवन्ध देशघाति हो जाता है। पुन. चक्षदर्शनावरणीयकर्मका अनुभागबन्ध देशधाति हो जाता है पुनरपि मतिनानावरणीय और परिभोगान्तरायकर्मोका अनुभाग देशघाति हो जाता है पुनरपि वीर्यान्तराय कर्मोका अनभागवन्ध देशघाति हो जाता है, किन्तु स्थितिबन्ध पल्यके असख्यातवेभागप्रमाण होता है।
विशेषार्थ-पूर्वोक्त सन्धिके बाद जिस प्रत्येक स्थितिकाण्डकमे हजारो अनुभागकाण्डक गभित हैं ऐसे संख्यात स्थितिकाडकोके व्यतीत होनेपर मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायकर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाति हो जाता है, क्योकि उन कर्मोके सबसे मन्द परिणामरूप अनुभागबन्धका उसप्रकारसे परिणमन होनेमे विरोधका अभाव है। इन कर्मोका पहले जो अनुभागबन्ध सर्वघाति द्विस्थानरूपसे होता रहा है यहा वह एक बारमे सहकारी कारणरूप परिणाम विशेषको प्राप्तकर देशघाति द्विस्थानरूपसे परिणत हो गया है, परन्तु वहां सत्कर्मका अनुभाग तो सर्वघाति द्विस्थानरूप ही होता है, क्योकि उसका देशघातिकरण नही होता।
। तत्पश्चात् सख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होने पर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तरायकर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है । उसके बाद सख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तरायकर्मको वन्धकी अपेक्षा देशधाति करता है । पश्चात् सख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर चक्षुदर्शनावरणीयको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है । तत्पश्चात् सख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होने पर प्राभिनिबोधिकज्ञानावरणीय और परिभोगान्तरायको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है। उसके बाद संख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर वीर्यान्तरायकर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है।
शङ्का-इनके इस प्रकार देशघातिकरणका क्रमनियम किस कारणसे है ?
समाधान-ऐसी आशका नहीं करनी चाहिए, क्योकि जो कर्म अनन्तगुणी हीन शक्तिवाले हैं और जो कर्म अनन्तगुणी अधिक शक्तिवाले हैं उनका युगपत् देश