________________
लब्धिसार
[ गाथा २४६
लोभका असंक्रम यह दूसरा करण है । यहां गाथा में 'लोहस्स' ऐसा सामान्य निर्देश करने पर भी लोभसंज्वलनका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योकि व्याख्यानसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है । इसलिये पहले यानुपूर्वीके बिना लोभसज्वलनका भी शेष सज्वलन और पुरुपवेदमे प्रवृत्त होनेवाला सक्रम यहां श्रानुपूर्वीसक्रमका प्रारम्भ होने पर प्रतिलोमसक्रमका प्रभाव होनेसे रुक गया । यहां से लेकर लोभसज्वलनका सक्रम नही ही होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यद्यपि ग्रानुपूर्वीसक्रम से ही यह अर्थ उपलब्ध हो जाता है तथापि मन्दबुद्धिजनोका अनुग्रह करनेके लिए पृथक् निर्देश किया, इसलिए पुनरुक्त दोष प्राप्त नही होता ।
१६८ ]
मोहनीयका एकस्थानीय बन्ध यह तीसरा करण है । इसका तात्पर्य - इससे पूर्वं देशघाति द्विस्थानीयरूपसे मोहनीयका अनुभागबध होता रहा, अब परिणामोके माहात्म्यवश घटकर वह एक स्थानीय हो गया ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । नपु सकवेदका प्रथम समय उपशामक यह चौथा करण यहांपर आरम्भ हुआ है, क्योकि प्रथम श्रायुक्तकरण (उद्यतकरण) के द्वारा नपुंसकवेदकी ही उपशामनक्रियामें यहासे प्रवृत्ति देखी जाती है । छह आवलियोके जाने पर उदीरणा इस पाचवे करण को यहा आरम्भ करता है । मोहनीयका एक स्थानीय उदय यह छठा करण है । इसका अर्थपहले द्विस्थानीय देशघातिरूपसे प्रवृत्त हुआ मोहनीय कर्मका अनुभागउदय अन्तरकरण के श्रनन्तर ही एक स्थानीयरूपसे परिणत हो गया यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'मोहनीयकर्मका सख्यातवर्पप्रमाण स्थितिबन्ध' यह सातवां करण है । इसका अर्थ- पहले मोहनीयकर्मका जो स्थितिबन्ध असख्यातवर्षप्रमाण होता रहा उसका इस समय काफी घटकर सख्यातहजार वर्षप्रमाणरूपसे अवस्थान होता है, परन्तु शेष कर्मोंका असख्यात वर्षप्रमाण ही स्थितिवन्ध होता है, क्योकि उनका अभी भी सख्यातवर्ष प्रमाण स्थितिबंध प्रारम्भ नही हुआ है । इसप्रकार इन सातो कररणोका अन्तरकर चुकनेके प्रथम समयसे ही युगपत् प्रारम्भ होता है ।
छह प्रावलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणा होती है, इस करणका विशेष कथन इसप्रकार है—जैसे पहले सर्वत्र ही समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद ही नियमसे उदीररणाके लिए शक्य रहता आया है उसप्रकार यहां शक्य नही है, किन्तु ग्रन्तर किये जानेके प्रथम समयसे लेकर जो कर्मबंधते है मोहनीय या मोहनीयके प्रति - रिक्त ग्रन्य ज्ञानावररणादिक वे कर्म छह आवलियोके व्यतीत होनेके बाद उदीरणाके