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लब्धिसार
[ गाथा २४७ १६६
विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकर्मकी २१ प्रकृतियोका अन्तरकरण करनेके लिए अन्तरायामसे उत्कीरित द्रव्यको अन्तरायाममे नही देता है, किन्तु जो प्रकृतियां बन्धउदय की अपेक्षा उभयरूप हैं ऐसी पुरुषवेद व अन्यतर सज्वलनकषायकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियोमे से उत्कीरण होने वाले प्रदेशपुञ्जको आगमके अनुसार अपनी प्रथम स्थिति मे निक्षिप्त करता है और आबाधाको छोडकर द्वितीयस्थितिमें भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तर सम्बन्धी स्थितियोमे निक्षिप्त नही करता, क्योकि उनके कर्मपूजसे वे स्थितिया रिक्त होनेवाली हैं। जबतक अन्तर सम्बन्धी द्विचरमफाली है तबतक स्वस्थान मे भी अपकर्षण सम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोड कर अन्तर सम्बन्धी स्थितियोमे प्रवृत्त रहता है ऐसा कितने ही आचार्य व्याख्यान करते है । यह अर्थ सर्व विकल्पोमे जानकर वतलाना चाहिए। जो कर्म न बधते है और न वेदे जाते है ऐसी अप्रत्याख्यानावरणादि पाठकषाय और हास्यादि छह नोकषायके उत्कीरण होनेवाले प्रदेश पुञ्जको अपनी स्थितियोमे नही देता है, किन्तु बधनेवाली प्रकृतियोकी द्वितीय स्थितिमे बन्धके प्रथम निषेकसे लेकर उत्कर्षण द्वारा सीचता है । बधनेवाली और नही बधनेवाली जिन प्रकृतियोकी प्रथमस्थिति है उनमे यथासम्भव अपकर्षण परप्रकृति सक्रमद्वारा सीचता है, परन्तु स्वस्थान ( अन्तरायाम ) निक्षिप्त नहीं करता। जो कर्मप्रकृतियां बधती नही, किन्तु वेदी जातो हैं ऐसो स्त्रीवेद व नपु सकवेदरूप प्रकृतिकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियोके प्रदेश पुजको ग्रहणकर अपनी-अपनी प्रथम स्थितिमे अपकर्षण संक्रमद्वारा देता है । उदयको प्राप्त सज्वलनकषायोंकी प्रथमस्थितिमें अपकर्षण-परप्रकृति सक्रमण द्वारा आगमानुसार निक्षिप्त करता है तथा वन्ध को द्वितोयस्थितिमें उत्कर्षणकर सिंचित करता है । जो कर्म केवल बघते ही हैं, वेदे नही जाते, ऐसे परोदय विवक्षामें पुरुषवेद और अन्यतरसज्वलनकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियोंमें से उत्कीर्ण होने वाले प्रदेशपुजका उत्कर्पणवश अपनी द्वितीयस्थितिमें सञ्चार विरुद्ध नही है। उदय सहित बंधनेवाली प्रकृतियोकी प्रथम और द्वितीय स्थितियोमे तथा अनुदयरूप बधनेवाली प्रकृतियोकी द्वितीयस्थितिमे सचार विरुद्ध नही है ।
____ इस क्रमसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण फालिरूपसे प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिद्वारा उत्कीर्ण होने वाला अन्तर अन्तिमफालिके उत्कीर्ण होनेपर अन्तरकरण करनेका काय समाप्त हो जाता है, क्योकि अन्तर सम्बन्धी अन्तिमफालिका पतन हो जानेपर अतर १. ज. प पु १३ पृ २६० ।