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लब्धिसार
अब क्रमकरणका उपसंहार करते हैं
तक्काले वेरियं ग्रामागोदाद साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेयणियाणं कमी जादो ॥ २३७॥
[ गाथा २३७-२३८
अर्थ - उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जाने पर तीन घातिया तीसिय अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय कर्मोका स्थितिबन्ध वीसिय अर्थात् नाम व गोत्र कर्मोके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन होता है । उसी समय नाम व गोत्रसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है । इसप्रकार मोहनीय, तीस वीस और वेदनीयकर्मोका क्रम होता है ।
विशेषार्थ --- इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनो ही कर्मोका स्थितिबन्ध एकबार मे ही विशेष घातको प्राप्तकर नाम व गोत्र कर्मोंके स्थितिबन्धसे ग्रसंख्यातगुणा होन हो गया, क्योकि नाम व गोत्र इन दोनो अघातिया कर्मोका स्थितिबन्ध विशेष घातको प्राप्त नही होता । यद्यपि पहले इन तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध नाम व गोत्र कर्मोके स्थितिवन्धसे असख्यातगुरगा होता था । उस समय स्थितिबन्धका क्रम इस प्रकार हो जाता है
मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनो कर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर सख्यातगुणा, उससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असख्यातगुणा, उससे वेदनीय कर्मका स्थितिवन्ध द्वितीयभागमात्र विशेष अधिक है, क्योकि नाम व गोत्रकर्म वीसिया है और वेदनीय कर्म तीसिया है' ।
आगे क्रम करणके अन्त में असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा और उसका कारण बताते हैं
तीदे बंधसहस्से पल्लासंखेज्जयं तु ठिदिबंधो।
तत्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥ २३८॥
१. ज. व. पु. १३ पृ. २४६-२४८ ।