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गाथा २३६-२४० ] लब्धिसार
[ १६१ अर्थ-पल्यके असंख्यातवेभाग प्रमाणवाले संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत हो जानेपर असख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है ।
विशेषार्थ-अनन्तर पूर्व कहो गई इस अल्पबहुत्व विधिसे हजारों स्थितिबन्धापसरण क्रियाको करते हुए जीवका जब कितना ही काल निकल जाता है तब पुनः जो कर्म बधते है उन सभी कर्मोका स्थितिबन्ध पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण ही होता है, अभी तक किसी भी कर्मका सख्यातवर्षकी स्थितिवाला बन्ध प्रारम्भ नही हुआ है, क्योकि इससे बहुत दूर ऊपर जाकर अन्तरकरणके पश्चात् संख्यातवर्षकी स्थितिवाले बन्धका प्रारम्भ देखा जाता है, किन्तु इस स्थल पर सभी कर्मोका स्थितिसत्कर्म अन्त - कोडाकोड़ीके भीतर जानना चाहिए, क्योकि उपशमश्रेणिमें अन्य प्रकार सम्भव नही है। यहां ये जितने स्थितिबन्धापसरण हुए है वहां सर्वत्र ही पूर्वोक्त विधिसे स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और गुणश्रेणि आदिका अनुगम करना चाहिए, क्योकि इस विषयमे नानात्व नही पाया जाता।
__पूर्व में सर्वत्र ही जो उदीरणा असख्यातलोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार प्रवृत्त होती आ रही थी इससमय वह उदीरणा परिणामोके माहात्म्यवश पूर्वोक्त क्रियाकलापके ऊपर असख्यात समयप्रबद्धोंकी प्रवृत्त होती है, क्योकि अपकर्षण भागहारसे असख्यातगुणे भागहारके द्वारा डेढ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोको भाजितकर जो असख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण एक भाग लब्धरूपसे प्राप्त होता है उसका यहा उदीरणारूपसे उदयमे प्रवेश देखा जाता है, परन्तु यहा सर्वत्र उदीरणाको उदयके असख्यातवे भागप्रमाण ही ग्रहण करना चाहिए, क्योकि उत्कृष्ट उदीरणाद्रच्यका भी ऐसा नियम है कि वह उदयगत गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको देखते हुए असख्यातगुणा हीन देखा जाता है ।
अथानन्तर दो गाथाओं में देशघातिकरणका कथन करते हैंठिदिबंधसहस्सगदे मणदाणा तत्तियेवि ओहिदुगं । लाहं व पुणो वि सुदं अचक्खु भोगं पुणोचक्खु ॥२३६।। पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विरयं कमेण अणुभागो। बधेण देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधे ॥२४०।।
१. क. पा. सु. पृ. ६८८ सूत्र ११५ । २. ज. ध पु १३ पृ. २४८-४६ ।