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गाथा २१७ । लब्धिसार
[ १७५ अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीयकी आदि (प्रथम) स्थितिक्षय होने पर मिथ्यात्वके द्रव्यमेसे सम्यक्त्वप्रकृति व मिश्रप्रकृतिमें गुणसक्रमण द्वारा नही, किन्तु विध्यातसंक्रमण द्वारा दिया जाता है।
विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वमें गुणसक्रमण द्वारा मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृति व मिश्रकृतिमे दिया जाता है, किन्तु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमे विध्यातसक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमे दिया जाता है,' क्योकि गुणसक्रमके कारणभूत जीवपरिणामोकी विचित्रतावश यहा गुणसक्रम नहीं होता, प्रतिसमय विशेषहीन क्रमसे विध्यातसक्रम ही प्रवृत्त होता है तथा यहासे लेकर ज्ञानावरणादि कर्मोका स्थितिकाडकघात व अनुभागकाण्डकघात नही होता, परन्तु सयमरूप परिणामोके निमित्तसे अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि प्रवृत्त रहती है, क्योकि करणपरिणाम-निमित्तक गलितशेष गुणश्रेणिका यहा पर अन्त हो जाता है ।
___ अब द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि के विशुद्धिका एकान्तानुवृद्धिकालका प्रमाण कहते हैं
सम्मत्तुप्पत्तीए गुणसंकमपूरणस्त कालादो । संखेज्जगुणं कालं विसोहिवड्डीहिं वड्ढदि हु ॥२१७॥
अर्थ-प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका गुणसंक्रमद्वारा जो पूरणकाल प्राप्त होता है उससे सख्यातगुणे कालतक यह उपशान्तदर्शनमोहनीय जीव विशुद्धि के द्वारा बढ़ता रहता है।
विशेषार्थ-प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका जो गुणसक्रमकाल प्राप्त होता है उससे सख्यातगुणे कालतक यह जीव गुणसक्रमके बिना भी प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिकी वृद्धि होनेसे बढता रहता है ।
१. तात्पर्य यह है कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टिके प्रथमसमयसे लेकर गुणसंक्रम न होकर विध्यात
संक्रम होता है । इसलिये उत्तरोत्तर विशेष हीन क्रमसे मिथ्यात्व के द्रव्यका सम्यक्त्व और मिश्र
प्रकृति मे सक्रम होता रहता है, ऐसा ज्ञातव्य है । (ज ध पु १३ पृ. २०८) २. ज. ध पु १३ पृ. २०७-२०८ । ३ और इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त है। ४. क पा सु पृ ६८०, ज.ध. पु १३ पृ २०८ ।