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गाथा २२७-२२८ ] लब्धिसार
[ १८३ जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्षणके अविरुद्ध पर्यायके योग्य होकर पुनः उदय और परप्रकृतिसक्रमरूप न हो सकनेकी प्रतिज्ञारूपसे स्वीकृत है उस अवस्था विशेषको निधत्तीकरण कहते है, परन्तु जो कर्म उदयादि इन चारोंके अयोग्य होकर अवस्थानकी प्रतिज्ञामें प्रतिबद्ध है उसकी उस अवस्थानलक्षण पर्यायविशेषको निकाचनाकरण कहते है । इसप्रकार ये तीनो ही करण इससे पूर्व सर्वत्र प्रवर्तमान थे, यहा अनिवृत्ति करण के प्रथम समयमे उनकी व्युच्छित्ति हो जाती है। इनके व्युच्छिन्न होने पर भी सभी कर्म अपकर्षण, उत्कर्षण, उदीरणा और परप्रकृतिसंक्रम इन चारोके योग्य हो जाते है ।
आगे अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके प्रथम समयमें कर्मोके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्वके प्रमाणका कथन करते हैं
अंतोकोडाकोडी अंतोकोडी य सत्त बंधं च । सत्तरहं पयडीणं अणियट्टीकरणपढमम्हि ॥२२७॥
अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे आयु बिना सात प्रकृतियोंका स्थितिसत्त्व यथायोग्य अन्तःकोटाकोटीसागर मात्र है और स्थितिवन्ध अन्त कोडाकोडी मात्र है।
विशेषार्थ-आयुकर्मको छोडकर शेष कर्मोका स्थितिसत्कर्म अन्त कोडाकोडी सागरोपमके भोतर होता है, क्योकि अत्यन्तरूपसे भी घातको प्राप्त हुए शेष कर्मोका उपशमश्रेणिमे सूत्रोक्त प्रमाण का त्याग किये बिना अवस्थानका नियम देखा जाता है । स्थितिबन्ध अन्त कोडाकोडीके भीतर लक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होता है, क्योकि उसका स्थितिबन्धापसरणके माहात्म्यवश पहले बहुत ह्रास हो गया है, इसलिये उसके सूत्रोक्त सिद्ध होने मे विरोधका अभाव हो गया है ।
अब तीन गाथाओं में उसी अनिवृत्तिकरणकालमें स्थितिबन्धापसरणके क्रमसे स्थितिबन्धोंके क्रमशः अल्प होनेका कथन करते है
ठिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा । तत्थ अलगिणस्त ठिदीसरिस ट्ठिदिबंधणं होदि ॥२२८॥
१.
ज. प. पु. १३ पृ. २३१ । ध. पु ६ पृ. २६६; घ. पु. ६ ५ २३६, घ. पु १५ . २४६, गो. के. गा. ४४०-४४४ एवं ४५० ।