________________
लब्धिसार
गाथा २३०-२३१ ]
[ १८५ * एई दियट्टिदीदो संखसहस्ले गदे दु ठिदिबंधो । पल्लेकदिवड्डदुगे ठिदिबंधो वीसियतियाणं ॥२३०॥
अर्थ-एकेन्द्रियसदृश स्थितिबन्धसे सख्यातहजार स्थितिबन्ध बोत जानेपर क्रमसे वीसिया ( नाम-गोत्र ) का एक-एक पल्य, तीसीया ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मो ) का डेढपल्य, चालीसिया ( चारित्रमोहनीय ) का दो पल्य प्रमाण स्थितिबन्ध होता है।
विशेषार्थ-नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। उससे चार कर्मोका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण कितना है ? द्वितीयभागप्रमाण है। उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? तृतीय भागप्रमाण है' ।
अब बन्धापसरण के विषयमें विशेष स्पष्टीकरण करते हैंपल्लस्स संखभागं संखगुणणं असंखगुणहीणं । बंधोसरणं पल्लं पल्लासंखंति संखवस्संति ॥२३१॥
अर्थ-पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक पल्यके सख्यातवेभाग प्रमाणवाला स्थितिबंधापसरण होता है। उसके पश्चात् पल्यके असख्यातवेभाग स्थितिवन्ध प्राप्त होने तक पल्यके संख्यात बहुभाग प्रमाणवाला स्थितिबधापसरण होता है । उसके पश्चात् सख्यातहजारवर्ष स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक पल्यका असंख्यात वहभाग प्रमाणवाला स्थितिबन्धापसरण होता है।
विशेषार्थ-पल्योपमका सख्यातवे भागप्रमाण स्थितिवन्धापसरण तवतक होता है जबतक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्धको नही प्राप्त होता । पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्धके हो जानेपर वहासे लेकर सख्यात बहुभागका स्थितिवन्धापसरण होता है यह नियम है। पल्योपमका संख्यातवांभाग दूरापकृष्ट संज्ञावाला स्थितिवन्धसे लेकर पल्योपमके असंख्यात बहुभागोका स्थितिबन्धापसरणका नियम है । इस गाथामे इन नियमोका उपसहार किया गया है ।
१. ज. घ. पु. १३ पृ. २३४ प ३३ से पृ. २३५ पं. १६ । २. ज.ध. पु. १३ पृ. २३५ व २४० ।