________________
१७८ ] लब्धिसार
[ गाथा २२२ अवश्य होता है और वह सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानमे होता है। सहस्रोवार प्रमत्तअप्रमत्तगुणस्थानमे परावर्तनके पश्चात् उपशमश्रेणिके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होता हया कषायोंको उपशमानेके लिये अध प्रवृत्त करण परिणामरूप परिणमता है ।
कषायोका उपशम करनेवाले जीवके अध प्रवृत्तकरण होता है उसमे प्रवृत्ति करने वाले जीवके स्थितिघात अनुभागघात आदि सम्भव नही है । केवल उसके अन्तर्मुहर्तप्रमाण कालके भीतर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हया सहस्रो स्थितिवन्वापसरण करके अपने प्रथम समयके स्थितिवन्धसे उसके अतिम समयमे संख्यातगुणे हीन स्थितिबन्धको स्थापित करता है । अप्रशस्तकर्मोका प्रतिसमय अनन्तगुणी हानिको लिये हुए अनुभागबन्धापसरण भी करता है । यद्यपि इन करणोके लक्षणोके कथनमे वस्तुत कोई भेद नही है तथापि पूर्वके करणोमें विशुद्धि अनन्तगुणीहीन होती है और आगेके करणोमें विशुद्धि अनन्तगुणी अधिक होती है । इसप्रकार इन करणोमें जो भेद उपलब्ध होता है उसका आश्रयकर पृथक्-पृथक् कार्योकी सिद्धि हो जाती है इसमें कोई विरोध नही उपलब्ध होता है।
कषायोका उपशामक यह जीव क्षीणदर्शनमोहनीय होवे अथवा उपशान्तदर्शनमोहनीय होवे, दोनोके उपशम श्रेणिपर आरोहण करनेमे निषेधका अभाव है ।
१ ज. ध पु १३ पृ २१० । ध, पु. ६ पृ २६२ । क पा सु पृ. ६८० । २ सयमगुणश्रेणी को छोडकर अधःप्रवृत्त परिणाम निवन्धन गुणश्रोणि भी नहीं है ।
(घ. पु. ६ पृ २६२) ३ ज ध पु १३ पृ २१३, ध पु ६ पृ २६२, क पा. सु पृ ६८० । ४ प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धी की विसयोजना, द्वितीयोपशमकी उत्पत्ति, क्षायिक
सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, चारित्रमोहको उपशामना, चारित्रमोहकी क्षपणा इन कार्यों में तीन करण होते है, उनमे लक्षण भी सर्वत्र समान है, परन्तु विशेष यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय इन तीन करणो मे सबसे कम विशुद्धि होती है तथा चारित्रमोहकी क्षपणा के समय इन तीन करणोमे सबसे अधिक विशुद्धि होती है। मध्यस्थानो मे अधिकारी भेद से यथायोग्य विशुद्धि
जान लेना चाहिये [ज ध पु १३ प २१४, ध पु ६ पृ २८६] ५ ज घ. पु १३ पृ २१३-१४, ध. पु ६ पृ २८६ । ६ दोण्हपि उबसेडिसमारोहणे विप्पडिसेहाभावादो [ज. ध मूल पृ. १६१५]