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गाथा २२३ ]
लब्धिसार
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उनमें से जो क्षीणदर्शनमोहनीय कषायोका उपशामक होता है, कषायों का उपशम करने के लिए उद्यत हो अपूर्वकरणमे विद्यमान हुए उसके प्रथम स्थितिकाडकका क्या प्रमाण है ? ऐसा पूछने पर 'नियमसे पल्योपमका सख्यातवाभाग होता है' इस वचनके द्वारा उसके प्रमाणका निर्देश किया गया है | दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले परिणामो के द्वारा पहले ही अच्छी तरह से घातको प्राप्त हुई स्थितिमे अधिक स्थितिकाण्डककी योग्यता सम्भव नही है, ' परन्तु जो दर्शनमोहनीयके उपशम द्वारा द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि होकर कषायोका उपशम करता है उसके लिए ऐसा कोई नियम नही है । उसके जघन्य स्थितिकाडक तो पल्योपमके संख्यातवे भाग प्रमाण ही होता है, किन्तु उत्कृष्ट स्थितिकाडक सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिए ।
उपशान्तदर्शनमोहनीय या क्षीरणदर्शनमोहनीय कषायोंका उपशामक जो जीव अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिबन्धरूपसे जिस स्थिति समूहका अपसरण करता है जघन्य और उत्कृष्ट वह समूह भी पल्योपमके सख्यातवे भागप्रमारण होता है, वहा अन्य विकल्प नही है ।
श्रागे अनुभागकाण्डक आदिके प्रमाणका निर्देश करते हैं
असुहाणं रसखंडमणंतभागा व खंडमियरां । अंतोकोडाकोडी सत्तं बंधं च तट्ठा ॥२२३॥
अर्थ — अपूर्वकरणके प्रथम समयमे प्रशुभकर्मो के अनन्तबहुभाग अनुभागका घात करनेके लिए अनुभागकाडक होता है तथा इतर अर्थात् शुभ प्रकृतियोका अनुभागकाडक नही होता और उसी प्रथम समयमे सर्वकर्मोका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अत:hastatsसागर होता है ।
विशेषार्थ - अपूर्वकररण के प्रथम समयमे स्थितिबन्ध व स्थिति सत्कर्म अन्तकोडाकोड़ीसागरसे अधिक सम्भव नही है । तथा शुभ प्रकृतियोका अनुभागकाडकघात
१.
ज.ध पु. १३ पृ. २२२-२३ ।
२.
ज ध. पु. १३ पृ. २२३-२४ । इस विशेषार्थ मे स्थितिबन्धापसररणका प्रमाण बताया गया है ऐसा जानना चाहिये ।