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लब्धिसार
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[ गाथा २०८-२१५ विशेष यह है कि वे हो तीनकरण (अनन्त वियोजना सम्बन्धी) पृथक्-पृथक कार्यों के उत्पादक कैसे हो सकते है, (यहा उपशामना मे भी कार्यकारी) ऐसी आशका नहीं करना चाहिये, क्योकि लक्षणकी समानतासे एकत्वको प्राप्त, परन्तु भिन्न-भिन्न कर्मोके विरोधी होनेसे भेदको भी प्राप्त हुए जीवपरिणामोके पृथक्-पृथक् कार्यके उत्पादनमे कोई विरोध नही है ।
उस समय का स्थितिसत्त्व विशेष, अपूर्वकरणादिमें होने वाले कार्य विशेष, अन्तरकरणविधि आदि का कथन आठगाथाओंमें करते हैं
ठिदिसत्तमपुत्वदुगे संखगुणणं तु पढमदो चरिमं । उवसामण भणियट्टीसंखाभागासु तीदासु ।।२०८॥ सम्मस्स असंखेज्जा समयपबद्धाणुदीरणा होदि। तत्तो मुहुत्तअंते दसणमोहंतरं कुणई ॥२०६॥ अंतोमुहूत्तमेत्तं वलिमेत्तं य सम्मतियठाणं । मोत्तूण य पढमट्ठिदि दंसणमोहंतरं कुणदि ॥२१०॥ सम्मत्तपयडिपढमट्ठिदिम्मि संछुह दि दसणतियाणं । उक्कीरयं तु दव्वं बंधाभावादु मिच्छस्स ।।२११॥ विदियट्टिदिस्त दव्वं उक्कट्ठिय देदि सम्मपढमम्हि । विदियट्ठिदिम्हि तस्स अणुक्कीरिज्जतमाणम्हि ।।२१२॥ सम्मत्तपय डिपढमट्ठिदीसु सरिमाण मिच्छमिस्साणं । ठिदिदव्वं सम्मस्स य सरिसणिसेयम्हि संकमदि ॥२१३॥ जावंतरस्स दुचरिमफालि पावे इमो कमो ताव । चरिमतिदसणदव्वं छुहेदि सम्मस्स पढमम्हि ॥२१४॥ विदियट्ठिदिस्त दव्वं पढमहिदिमेदि जाव आवलिया।
पडि आवलिया चिट्ठदि सम्मत्तादिमठिदी ताव ॥२१५॥ १. व पु. ६ पृ २८६ ।