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लब्धिसार
[ गाथा २०६ - २०७
माहात्म्यवश नही बाधता था, उनका अब कितने ही कालतक बन्ध करता हुग्रा विश्राम करता है' ।
तत्पश्चात् कोई जीव दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोका क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहका उपशम प्रारम्भ करता है तथा कोई जीव द्वितोयोपशम सम्यक्त्व सहित उपशमश्रेरिंग चढता है उसके दर्शनमोहका उपशम विधान कहेगे । अब दो गाथाओं में दर्शनमोहके उपशमका निर्देश तथा उपशमश्रेणिपर चढ़ने की योग्यता के निर्देश पूर्वक वहां ( दर्शन मोहोपशममें) गुणसंक्रमणके अभाव का प्रतिपादन करते हैं
तत्तोनियर विहिणा- दंसणमोहं समं खु उवलमदि । सम्मत्पत्ति वा अणं च गुणसेढिकरणविही ॥ २०६ ॥ दंसणमोहुवसमणं - तक्खवणं वा हु होदि वरिं तु । गुणसंकमो विज्जदि विज्झद वाधापवत्तं च ॥२०७॥
अर्थ --- अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तीनकरण विधिके द्वारा तीनो दर्शनमोहनीय कर्म प्रकृतियोको एकसाथ उपशमाता है । गुणश्रेणि, करण व अन्य अर्थात् स्थितिकाडक, अनुभागकाण्डक आदि विधि प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति के सदृश करता है । इस विधिके द्वारा दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम या क्षय होता है, किंतु उपशम होनेमे गुणसक्रमण नही होता । विध्यात सक्रमण अथवा अध प्रवृत्तसंक्रमण होता है।
विशेषार्थ – विश्राम करने- पश्चात् दर्शनमोहनीयका उपशम अर्थात् द्वितीयो - पशम करने वालेके अध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण जो पहले प्रथमोपशम- । सम्यक्त्वोत्पत्तिके विधानमें कहे गये है, यहा भी जानना चाहिए, क्योकि उनसे इनमे - कोई विशेषता नही है । उसीप्रकार स्थितिघात, अनुभागघात व गुणश्रेणी होती है । अध प्रवृत्तकरणकालमे स्थितिघात, अनुभागघात और गुरणसक्रमण नही है, केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ सख्यातहजार स्थितिबधापसरण होते है, अप्रशस्त
१. ज. घ. पु १३ पृ २०१ ।
२. गवरि एत्य गुणसकमो णत्थि विज्झदो चेव, अप्पसत्यकम्मारण अधापवत्तो वा ( धवला पु. ६ पृ. २८६ )