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गाथा ५२-५४ उत्तरार्ध तक ] "क्षपणासार
'इदि संडं संकामिय से काले इत्थिवेदसंकमंगो। अण्णं ठिदिरसखंड अण्णं ठिदिबंधमार बई ॥५२॥४४३॥ थी अंद्धा संखेज्जामागेपगदे तिघादिठिदिबंधों । वस्साणं संखेज्जं थी संकंतापगंद्धते ॥५३॥४४॥ ताहे संखसहस्सं वस्साणं मोहणीयठिदिसंतं ॥पूर्वी.गा:५४॥४४५॥
अर्थः- इसप्रकार नपुसकवेदको संक्रमाकर तदनन्तरकालमें स्त्रीवेदका संक्रामक प्रथमसमयवर्ती आयुक्तक्रियाके द्वारा होता हैं । उससमय में अन्यस्थितिकाण्डक, अन्य ही अनुभागकाण्डक और अन्य स्थितिबन्धका प्रारम्भं करता है । पश्चात् (स्थितिकांडकपृथक्त्वसे) स्त्रीवेदके क्षर्पणकालकी संख्यातवीं भाग व्यतीत होनेपर तीन घातिया (ज्ञानावरणं, दर्शनावरण व अन्तरॉय) कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष प्रमाणवाला होता है, तत्पश्चात् (स्थितिकाण्डकं पृथक्त्वके द्वारा) स्त्रीवेदका जो शेष स्थितिसत्त्व है वह सब क्षपणाके लिये ग्रहण हो जाता है। (शेष कर्मोंके स्थितिसत्त्वका असंख्यातबहुभांग क्षपणाके लिए प्रहण हो जाता है । उस समय मोहनीयकर्मको स्थितिसत्त्वं संख्यातहजार वर्षप्रमाण हो जाता है । शेषकर्मोंका स्थितिसत्त्वं पल्यंके असंख्यातवेंभागप्रमाण है) अन्तिम स्थितिकाण्डकके पूर्ण होनेपर संक्रम्यमान स्त्रीवेद संक्रान्त हो जाता हैं । इसप्रकार पुरुषवेदमें संक्रान्त होकर स्त्रीवेदका श्रय हो जाता है।
विशेषार्थः-अप्रशस्त होनेके कारण नपुसकवेदके पश्चात् स्त्रीवेदकी क्षपणा प्रारम्भ करता है। उस समय पूर्व में तीनघातियाकर्मोंका जो स्थितिबन्ध असख्यातवर्षका होता था वह घटकर संख्यांतवर्षका रह जाता है ।
से काले संकमगो सत्तण्हं गोकसायाणं ॥५४॥उत्तराध।
१. के पा० सुत्त पृष्ठ ७५३-५४ सूत्र २१७ से २२३ । धवल पु० ६ पृष्ठं ३६०-६१ ।
जयधवल मूलं पृष्ठ १९६७-६८ ।' २. “ठिदिबंधमारवई" ईस्यस्यस्थाने 'ठिदिबंधमारंभदि' इति पाठो प्रतिभाति । ३. जयधवल मूल पृ० १९६७-६८ ।। ४. क०पा० सुत्त पृ० ७५४ सूत्र २२४ से २३२ । घ. पु.६ पृष्ठ ३६१ । ज.ध. मूल पृष्ठ १९६५-६६ ।