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क्षपणासार
[ गाथा ७७
पूर्वस्पर्धकको सर्वजधन्यदेशघातिवर्गणा अनुभाग से अनन्तगुणेहीन अनुभागके द्वारा अपूर्वस्पर्धकों की रचना होती है । क्रोध - मान-माया व लोभके पूर्वस्पर्धको में से असंख्यातवे भागका अपकर्षण होकर क्रोध मान-माया व लोभके देशघाति प्रथमस्पर्धक के नीचे तत् तत् - सम्बन्धी अपूर्वस्पर्धकोकी रचना होती है । पुरुषवेदके नवकसमयप्रबद्ध की प्रपूर्वस्पर्धक - रचना नही होती है, क्योकि उसका अनुभाग काण्डकघात नही होता, उसका तो प्रतिसमय सञ्ज्वलनक्रोधमे सक्रमण होता रहता है ।
पुव्वाण फड्ढयाणं छेत्तूण संखभागदव्वं तु ।
कोहादी मपु फड्डयमिह कुदि अहियकमा || ७७|| ४६८ ||
अर्थः- सञ्ज्वलनक्रोध - मान-माया व लोभके पूर्वस्पर्धकद्रव्यको असंख्यात से भाग देकर मात्र एकभाग द्रव्यसे क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक करता है । वे स्पर्धक अधिक - क्रम से होते हैं ।
विशेषार्थ :- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानका क्षय हो जानेसे मात्र सञ्ज्वलनक्रोध, मान, माया व लोभकषायरूप द्रव्य है जिसकी पूर्वस्पर्धकसंज्ञा है | क्रोध- मान-माया व लोभमे से प्रत्येककषायके समयबद्धको डेढगुणहानिसे गुणा करनेपर प्रत्येककषाय के पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी द्रव्यका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इस द्रव्यको उत्कर्षण-अपकर्षणभागहाररूप असख्यातसे भाग देकर एकभागप्रमाण द्रव्यसे अपूर्वस्पर्धको की रचना होती है । चारों सञ्ज्वलनकषायो में से प्रत्येक कषायकी एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तरके असख्यातवे भागप्रमाण अपूर्वस्वर्णकोकी रचना होती है, तो भी सर्वसञ्ज्वलनकषायो में खण्डोका प्रमाण सम नही है, क्योकि सज्वलन क्रोध के अपूर्व - स्पर्धक स्तोक हैं, उससे सज्ज्वलनमान के अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक हैं, मायासंज्वलन के पूर्वपक विशेषअधिक है और लोभसज्वलनके प्रपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक हैं । सख्यातवें या असंख्यात वेंभाग विशेषअधिक नही हैं, किंतु अनतवेभागरूपसे विशेष अधिक हैं ।
१. जयघवल मूल पृष्ठ २०२७ - २०३० ।
२. घ० पु० ६ पृष्ठ ३६८ ( जयघवल मूल पृष्ठ २०२६ व २०३०) ।
३ जयघवल मूल पृष्ठ २०२६-२७ ।