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गाथा ११४ ]
क्षपणासार
[१०६ तृतीयसंग्रहकृष्टि में भी जाननी चाहिए। जिसप्रकार द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी आदिमे अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में एकबार असंख्यातवेंभागसे विशेषअधिक प्रदेशाग्रका विन्यास होकर पश्चात् अपूर्वकृष्टिके अन्तपर्यन्त अनन्तवेंभागहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं । अपूर्वकृष्टियोंको उलंघकर पूर्वकृष्टियोंकी आदिकृष्टि में असंख्यातवेंभागहीन द्रव्य दिया जाकर अनन्तरकृष्टियों में अनन्तवेंभागहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं ऐसा प्ररुपण किया गया है उसीप्रकार लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके नोचे अन्तरकृष्टियों में भी होनाधिक प्रदेशान देनेका कथन करना चाहिए।
तदनन्तर लोभकषायकी अन्तिमकृष्टिसे मायाकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके नीचे द्वितीयसमयमें निवर्तमान अपूर्वकृष्टियोमें जो जघन्यकृष्टि है उसमें असंख्यातवेभागसे विशेषअधिक प्रदेशाग्न दिया जाता है । इसप्रकार उपर्युक्त क्रमसे जहां-जहां पूर्वकृष्टियों की अन्तिमकृष्टिसे अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि कही गई है वहां-वहां असंख्यातवेभागसे विशेषअधिक प्रदेशान दिया जाता है और जहां-जहां अपर्वकृष्टियोंको अन्तिमकृष्टि से पूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि कही गई है वहां-वहां असंख्यातवेंभागसे हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इसक्रमसे द्वितीयसमयमें निक्षिप्यमाण प्रदेशाग्रका बारहकृष्टि स्थानोमें असंख्यातāभागसे हीन दीयमान प्रदेशाप्रका अवस्थान है, क्योंकि बारह पूर्वसंग्रहकृष्टियोंके नीचे अपूर्वकृष्टियोंकी रचना हुई है इसलिए बारह अपूर्वकृष्टियोकी चरमकृष्टि से बारह पूर्वसंग्रहकृष्टियोकी जघन्यकृष्टियों में असंख्यातवेभागसे हीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, किन्तु असंख्यातवेभागसे अधिक प्रदेशाग्र ग्यारहकृष्टिस्थानो में दिया जाता है, क्योंकि लोभकी प्रथमपूर्वसंग्रहकृष्टिके नीचे जो अपूर्वकृष्टियोंकी रचना हुई है उन अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिस्थानमें पूर्वसग्रहकृष्टिकी अन्तिमकृष्टिसम्बन्धी संधिका अभाव होनेसे अपूर्वकृष्टियोंकी जवन्यकृष्टि और पूर्वसंग्रहकृष्टियोंकी अन्तिमकृष्टिसम्बन्धी सन्धि ११ स्थानोमें होती है। शेषकृष्टिस्थानोंमे दीयमान प्रदेशाग्रका अनन्तवेभागसे हीन अवस्थान है । इसप्रकार द्वितीयसमय में दीयमान प्रदेशाग्रकी यह उष्ट्रकूटश्रेणि है अर्थात् ( जिसप्रकार ऊंटको पोठ पिछलेभागमें पहले ऊंची होती है पुनः मध्यमें नीची होती है और फिर आगे नीची-ऊंची होती है, उसीप्रकार यहा प्रदेशाग्र भी आदिमें बहुत होकर फिर स्तोक रह जाता है पुनः सन्धिविशेषों में अधिक और हीन होता जाता है इसीकारण यहापर होनेवाली प्रदेशश्रेणीकी रचनाको उष्ट्रकूटश्रेणी कहा है )। द्वितीयसमयमें जो प्रदेशाग्न दिखता है