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लब्धिसार
[ गाथा २५-२६ विशेषार्थ-गाथा २१-२२ व २३ में कही गई प्रतियोंका स्थितिबन्ध अत. कोड़ाकोड़ीसागसेपमप्रमाण ही होता है; क्यो कि सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव विशुद्धतर परिणामोसे युक्त होता है, इसलिए उसके इससे अधिक स्थितिबन्ध सम्भव नही है । अनुभागबन्ध भी अप्रशस्तप्रकृतियोंका द्विस्थानीय होता है, प्रशस्तप्रकृतियोका चतुःस्थानीय होता है'।
आगे सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि के प्रदेशविभागको कहते हैंमिच्छणयीणति सुरचउ समवज्जपसत्थगमणसुभगतियं । .. णीचुक्कस्लपदेसमणुक्कस्तं वा · पबंधदि हु ॥२५॥ एदेहि विहीणाणं तिगिण - महादंडएसु उत्ताणं...। एकढिपमाणाणमणुक्कस्तपदेसंबंधणं कुणदि ॥२६॥
अर्थ-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धोचतुष्क, स्त्यानगृद्धित्रिक, देवचतुष्क, समचतुरत्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभगादि तीन और नीच गोत्रका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध करता हैं । इन प्रकृतियोसे रहित तीन महादण्डक अर्थात् गाथा २१-२२ व २३ मे कही गई शेष ६१ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध करता है ।
विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव जिन प्रकृतियोको बांधता है उसका कथन तीन महादण्डके द्वारा किया गया है प्रथम महादण्डकमें मनुष्य व तिर्यचके बंधयोग्य प्रकृतियोका कथन है, द्वितीय महादण्डकमे देवो व प्रथमछहनारकियोके बन्धयोग्य प्रकृतियोका कथन है । तृतीय महादण्डकमें सप्तमपृथ्वीके नारकी द्वारा वन्धयोग्य प्रकृतियोका कथन है । निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान-माया-लोभ, देवगति-देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीरवैक्रियिकशरीरअंगोपाग, वज्रर्षभनाराच-संहनन, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और नीचगोत्र इन १६-प्रकृतियोंका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । पांच ज्ञानावरणीय, छहदर्शनावरणीय, सातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभरूप १२ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, १. ज. प पु १२ पृ २१३; ध. पु. ६ पृ २०६-१० । २. घ. पु ६ पृ १३३-३४, १४०-४१-४२-४३ । । -
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