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गाथा १३१ ] लब्धिसार
[ १२१ पुन इन्ही अन्तिम दो फालिके पतन समयमे-पाठवर्षकी स्थिति करनेके समयमे अनन्तगुणा हीन होकर लताके समान एक स्थानीय अनुभाग हुआ । यहासे लेकर पूर्वमे जो अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा अनुभागकाडकघात होता था उसका अभाव हुआ और प्रतिसमय अनन्तगुणे हीन क्रमसे अनुभागका अपवर्तन होने लगा । वहा अनन्तरवर्ती अाठवर्ष स्थिति करनेके समयसे पूर्व समयमे निषेकका जो अनुभाग सत्त्व था उससे अनन्तगुणाहीन आठवर्ष स्थिति करने के समयमे उदयावलिके उपरवर्ती उपरितनावलीके प्रथम निषेकका अनुभागसत्त्व अवशिष्ट रहता है । अवशिष्ट अनन्त बहुभागरूप अनुभागका विशुद्धि-विशेषसे अपवर्तन हुग्रा-नाश हुआ । तथा उसी समयमे उदयावलिके अन्तिम निषेकका अनुभागसत्त्व अपनेसे उपरवर्ती उस उपरितनावलिके ( द्वितीयावलि के ) प्रथमनिषेक सम्बन्धी अनुभाग सत्त्वसे अनन्तगुणा हीन रहता है तथा अवशिष्टका नाश होता है । पुन उससे अनन्तगुणा हीन उदयावलिके प्रथम निषेका अनुभागसत्त्व रहता है, शेषका नाश होता है। उससे अनन्तगुणाहीन आठवर्ष स्थितिकरनेके समयसे लेकर अनन्तरवर्ती आगामी समयमे अनन्तगुणाहीन अनुभागसत्त्व होता है । इसप्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणा हीन अनुक्रमसे उच्छिष्टावलिके अन्तिम समय पर्यन्त अनुभागका अपवर्तन जानना।
भावार्थ-जिससमय सम्यक्त्वप्रकृतिका आठवर्षप्रमाण स्थिति सत्कर्म होता है उससे पहले सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग लता-दारुरूप द्विस्थानीय था । उसकी अब एक लता स्थानीयरूप से प्रतिसमय अपवर्तना प्रारम्भ होती है, पहले अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अनुभागकाण्डककी रचना करता था अब पूर्वके काण्डकघातका उपसहारकर प्रत्येक समयमे सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागकी अनन्तगुणी हानिरूपसे अपवर्तना होती है। अनन्तरपूर्व समयके अनुभागसत्कर्मसे वर्तमान समयमे अनुभागसत्कर्म उदयावलिसे बाहर (द्वितीयावलिके प्रथम निषेकमे) अनन्तगुणा हीन है । इस अनुभागसत्कर्म से उदयावलि के भीतर अनप्रविशमान (उदयावलिके अन्तिम निषेक मे) अनुभागसत्कर्म अनन्तगणा हीन है। इससे भी उदय समयमे प्रवेश करनेवाला (प्रथमनिषेकमे) अनुभागसत्कर्म अनन्तगणा हीन है । इसप्रकार दर्शनमोहनीयके क्षय होनेके एकसमय अधिक एक श्रावलि पूर्वतक प्रत्येक समयमे इसीप्रकार जानना चाहिये । इसके पश्चात् एक प्रावलि कालतक उदयमे प्रविशमान अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना पाई जाती है ।
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ज ध. पु १३ पृ. ६३ ।