________________
१५८ ]
लब्धिसार
[ गाथा १६१ इससे आगे देशसंयमके समान सकलसंयम में होने वाली प्रक्रिया विशेष का निर्देश करते हैं
एत्तो उवरि विरदे देसो वा होदि अप्पबहुगोत्ति । देसोति य तटाणे विरदो त्ति य होदि वत्तव्वं ॥१६॥
अर्थ-यहा से ऊपर (आगे) अल्पबहुत्व पर्यन्त, पहले देशचारित्रमे जैसा कथन किया है वैसा ही सर्वकथन यहा ( सकल चारित्रके सम्बन्ध मे ) भी जानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि उस कथनमें जहा देशचारित्र कहा है उसके स्थान पर सकलचारित्र कहना चाहिए ।
विशेषार्थ-सयम ग्रहणके प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्तकालतक चारित्रलब्धिसे एकान्तानुवृद्धिको प्राप्त होता है, क्योकि अलब्धपूर्व सयमको प्राप्त होनेसे सवेगसम्पन्न मनुष्यके एकान्तानुवृद्धि पाई जाती है। प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धिसे प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेरिणरूपसे कर्मस्कन्धोकी निर्जरा होती है । जबतक एकातानुवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है तबतक आयुकर्मको छोडकर शेष सर्व कर्मोके सहस्रो स्थितिकाडको और सहस्रो अनुभागकांडकोका घात होता है। एकान्तानुवृद्धि कालतक इस जीवको सज्ञा 'अपूर्वकरण' होती है, क्योकि अपूर्व-अपूर्व परिणामोके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवके 'अपूर्वकरण' सज्ञाकी सिद्धिमे कोई बाधा नही है अथवा अपूर्वकरणकालके समाप्त हो जानेपर भी अपूर्वकरणके समान प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व परिणामोके द्वारा स्थितिघात आदि कार्य होते हैं ।
___एकान्तानुवृद्धिकाल समाप्त होनेपर तत्पश्चात् अध प्रवृत्तसंयत होता है । यहां स्थितिघात और अनुभागघात नही है, परन्तु जबतक सयत है तबतक अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि होती है । इतनी विशेषता है कि विशुद्धिको प्राप्त हुआ असख्यातगुणी, सख्यातगुणी, सख्यातवेभाग अधिक या असख्यातवेभाग अधिक द्रव्यका अपकर्षणकर गुणशेरिण करता है । सक्लंशको प्राप्त हुआ इसीप्रकार गुणहीन या विशेषहीन द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेणि करता है तथा अवस्थित परिणामवाला अवस्थित द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेरिण करता है। परिणामोके अनुसार होनेवाली गणश्रेणिनिर्जराके परिणामोकी वृद्धि व हानि वश ही प्रवृत्ति होती है । १. ज प पु १३ पृ १६६ । २ ज घ पु. १३ पृ. १३०, ज घ. पु १३ पृ १६७, प पु १२ पृ.७६ ।