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लब्धिसार
[ गाथा १६६-१६७
अथानन्तर अनुभस्थानोंका कथन करनेके लिये अगला गाथासूत्र कहते हैंततोभयठाणे सामाइयछेद जुगल परिहारे ।
पडिबद्धा परिणामा असंखलोगध्पमा होति ॥ १६६ ॥
अर्थ - प्रतिपद्यमान स्थानोके ऊपर सामायिक - छेदोपस्थापना सम्बन्धी तथा परिहारविशुद्धिसयमसम्बन्धी सख्यातलोकप्रमाण अनुभयस्थान है' ।
विशेषार्थ -- तत्प्रायोग्य सक्लेशवश सामायिक - छेदोपस्थापना के ग्रभिमुख हुए परिहारविशुद्धिसयत के अन्तिमसमयमे परिहारविशुद्धसयतका जघन्य ग्रनुभयस्थान है । परिहारविशुद्धि से छूटकर सकलसयमी रहा इसलिये सकलसयमकी अपेक्षा अनुभवस्थान कहा गया है, प्रतिपातस्थान नही कहा गया । तीव्र - मन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन गा २०४ के अन्तमे किया गया है |
आगे सूक्ष्मसाम्पराय व यथाख्यातसंयम स्थानोंका कथन करते हैंतत्तो य सुहुमसंजम पडिवजय संखसमयमेत्ता हु |
तत्तो दु जहाखादं एयविहं संजमे होदि ॥ १६७॥
अर्थ —— उस सामायिक-छेदोपस्थापनाके उत्कृष्टस्थान से ऊपर प्रसंख्यातलोकप्रमाण स्थानोका अन्तराल करके उपशमश्रेणिसे उतरते हुए श्रनिवृत्तिकरणके सम्मुख जोवके अपने अन्तिम समयमे होनेवाले सूक्ष्मसाम्परायेका जघन्यस्थान होता है । उसके ऊपर असंख्यातसमयप्रमाण स्थान जाकर क्षपकसूक्ष्मसाम्पराय के अन्त समयमे होनेवाले सूक्ष्मसाम्परायका उत्कृष्टस्थान होता है । उससे आगे असख्यातलोकप्रमाण स्थानोका अन्तराल करके यथाख्यातचारित्रका एक स्थान होता है । यथाख्यातचारित्ररूप यह स्थान सभी सयमोसे अनन्तगुणी विशुद्धता युक्त उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली व अयोगकेवलीके होता है । इसमे सभी कषायोका सर्वथा उपशम अथवा क्षय है अतः जघन्य, मध्यम व उत्कृष्टरूप भेद नही है ।
१. क्रम संक्षिप्ततः इसप्रकार है-सर्वप्रथम सामायिक छेदोपस्थापना का जघन्यस्थान फिर असख्यातलोक प्रमित स्थानो के पश्चात् परिहारविशुद्धि का जघन्यस्थान । तत्पश्चात् आगे उतने ही स्थान जाकर परिहारविशुद्धिसयमका उत्कृष्टस्थान, फिर इतने ही स्थान ऊपर जाकर सामायिक-छेदोपस्थापना का उत्कृष्ट स्थान है ।
२.
घ. पु ७ पृ. ५६७, घ. पु ६ पृ २८६ । ज घ. पु १३ पृ. १८७, क. पा सुत्त प ६७५, ला गा. २०४ आदि ।