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“अथ चारित्रमोहनीय उपशमनाधिकार"
सम्पूर्ण दोषों को उपशान्त किया है जिन्होंने ऐसे उपशान्तकषाय वीतरागियों को नमन करके उमशमचारित्रका विधान कहते हैं
उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता । अंतोमुहुत्तकालं अधापवत्तोऽपमत्तो य ॥२०५॥
अर्थ-उपशमचारित्रके सम्मुख हुआ वेदकसम्यग्दृष्टिजीव सर्वप्रथम पूर्वोक्त विधानसे अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्तकाल तक अधःप्रवृत्त-अप्रमत्त अर्थात् स्वस्थान-अप्रमत्त होता है ।
विशेषार्थ-वेदकसम्यग्दृष्टिजीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजना किये बिना कषायोकी उपशामनाके लिये प्रवृत्त नही होता इसीलिये गाथामे "उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अण विजोयित्ता" यह पूर्वार्ध कहा है । मोहनीयकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोका सत्कर्मवाला वेदकसम्यग्दृष्टिसयत जबतक अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसयोजना नही करता तबतक कषायोको उपशामनाके लिए प्रवृत्त नहीं होता, क्योकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजना न होनेपर उसके उपशम श्रेणि पर चढने के योग्य परिणाम नही हो सकते । इसलिये अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजनामे यह सर्वप्रथम प्रवृत्त होता है'।
तीन करणो से अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक अधःप्रवृत्त सयत ( अप्रमत्तसयत ) होता हुआ असातावेदनीय, अरति, शोक और अयशःकीर्ति आदि प्रकृतियोका बन्ध करता है । अनन्तानुबन्धीकी विसयोजनारूप क्रिया शक्ति समाप्त होनेके बाद ही दूसरी क्रिया प्रारम्भ नही होती, किन्तु अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करके अन्तर्मुहूर्तकालतक स्वस्थान अप्रमत्तसयत होकर वहा संक्लेश और विशुद्धिवश प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानो में परिवर्तन करता हुआ असातावेदनीय. अरति, शोक और अयश कीर्ति आदि जिन प्रकृतियोंका पूर्वमे करणरूप विशुद्धिक
१ ज.ध. पु. १३ पृ. २०१ ।