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गाथ १६८-२०४ ।
लब्धिसार
[ १६३ अब सात गाथाओं में उन प्रतिपातादि स्थानोंका विशेष कथन करते हैंपडचरिमे गहणादीसमये पड़िवाददुगमणुभयं तु । तम्मज्झे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देसं वा ॥१८॥ पडिवादादीतिदयं उवरुवरिमसंखलोगगुणिदकमा। अंतरछक्कपमाणं असंखलोगा हु देसं वा ॥१६॥ मिच्छयददेसभिएणे पडिवादट्ठाणगे वरं अवरं । तप्पाउग्गकि लिट्टे तिव्वकिलिढे कमे चरिमे ॥२०॥ पडिवज्जजहरणदुर्ग मिच्छे उक्कस्सजुगलम विदेसे । उवरिं सामाइयदुगं तम्मज्झे होंति परिहारा ॥२०१॥ परिहारस्स जहणणं सामायियदुगे पडत चरिमम्हि । तज्जेठ्ठ सट्ठाणे सव्वविसुद्धस्स तस्सेव ॥२०२॥ सामयियदुगजहरणं अोघं अणियहिखवगचरिमम्हि । चरिमणियटिस्सुवरि पडत सुहुमस्स सुहुमवरं ।। २०३।। खवगसुहुमस्स चरिमे वरं जहाखादमोघजेटं तं । पडिवाददुगा सव्वे सामाइयछेदपडिबद्धा ॥२०४॥
अर्थ-संयमसे गिरते हुए चरम समयमें और संयम को ग्रहण करते समय प्रथम समयमे क्रमसे प्रतिपात और प्रतिपद्यमान ये दो स्थान होते है तथा इनके मध्य में अथवा ऊपरके गुणस्थानके सम्मुख होनेवाले जीव के जो अनुभय स्थान होता है वह देशसयतके समान ही यहा भी जानना चाहिये ।।१८।।
प्रतिपात आदि तीन प्रकारके स्थान अपने-अपने जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त ऊपरऊपर असख्यातलोकगुरणे क्रम से युक्त है । उन छहो मे प्रत्येकके असख्यातलोकप्रमाण बार षट्स्थानवृद्धि देशसयतके समान जानना ।। १६६ ।।
प्रतिपातस्थान तो मिथ्यात्व, असयम और देशसयमके सम्मुख होनेको अपेक्षा तीन भेद वाला है। उसमें भी जघन्यस्थान सयमके चरम समयमे तीव्रसक्लेशवाले के