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गार्थो १६५ ] लब्धिसार
[ १५६ अब जघन्य संयतके विशुद्धि सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या बताते हैंअवरे विरदट्ठाणे होंति अणंताणि फड्ढयाणि तदो। छट्ठाणगया सव्वे लोयाणमसंख छट्ठाणा ॥१२॥
अर्थ-सर्व जघन्य संयमलब्धिस्थानमें अनन्तस्पर्धक होते हैं । इसके पश्चात् सर्वोत्कृष्ट स्थान पर्यन्त षट्स्थान पतित वृद्धियोके द्वारा असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित सर्वस्थान होते है।
विशेषार्थ-यह जघन्य सकलसंयमलब्धि सर्व जीवोसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागीप्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न हुआ है । ये ही अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद अनन्त स्पर्धक कहे जाते है, क्योकि यहां पर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदोका वाची स्वीकार किया गया है। अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिथ्यात्वमे गिरनेके सम्मुख हुए सयतके अन्तिम समयमें कषायोंके अनन्त अनुभागस्पर्धको के उदयसे उत्पन्न हुआ है। इसप्रकार कार्यमें कारणके उपचारसे अनन्त स्पर्धक कहे गये है।
___ जघन्य लब्धिस्थानको सर्व जीवराशि प्रमाण भागहारसे भाजितकर एक भागको मिलानेपर जघन्य संकलंसयम लब्धिस्थानसे अनन्तवाभाग अधिक होकर द्वितीय लब्धिस्थान होता है । जघन्य 'लब्धिस्थानसे अंगुलके असख्यातवेभागप्रमाण अंगन्तभागवृद्धिकांडक जाकर असख्यातभोगवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असख्यातंभागवृद्धिकाण्डक जाकर सख्यातभाग वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् सख्यातभागवृद्धिकाण्डक जाकर सख्यातगुण वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । उसके बाद सख्यातगुणवृद्धि काण्डक जाकर असंख्यातगणं वृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असख्यांतगुणवृद्धि कांडक जाकर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है, तब उस स्थान की कषाय उदयस्थान अनन्तगुणाहीन होता है, क्योंकि अनन्तगुरणेहीन कषायउदयस्थानोके बिना अनन्तगुणस्वरूप सकलसयम लब्धिस्थान की उत्पत्ति नही हो सकती है । यह एक षट्स्थान है। इसप्रकार असंख्यातलोकप्रमाण षान प्रतिपातस्थान है। प्रतिपात लब्धिस्थानोका उल्लंघनकर असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित प्रतिपद्यमान स्थान है। ये पिछले स्थानोसे असख्यातगुणे है, उससे भी असख्यातगुणे अप्रतिपात व अप्रतिपद्यमानस्थानोके योग्य असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित स्थान होते है' । प्रतिपात आदि तीन प्रकार के ये
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ज घ. पु. १३ पृ. १४३-१४४ ।